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मुम्बईया मजाहिया ग़ज़ल -- मिथिलेश वामनकर

1222---1222---1222-1222

 

सटक ले तू अभी मामू किधर खैरात करने का

नहीं है बाटली फिर क्या इधर कू रात करने का

 

पुअर है पण नहीं वाजिब उसे अब चोर बोले तुम  

न यूं रैपट लगा मामू कि पहले बात करने का

 

मगज में कोई लोचा है मुहब्बत हो गई तुमको

तुरत इकरार की खातिर उधर जज्बात करने का

 

धरम के नाम, अक्खा दिन नवें ड्रामें करे नल्ला

इसे बॉर्डर पे ले जाके, वहीं तैनात करने का

 

उधम करता है जो हलकट भगाने का उसे भीड़ू

सिटी का पीस वाला फिर अगर हालात करने का

 

कोई शाणा करे लफड़ा, तो दे कण्टाप पे लाफ़ा

कोई वांदा नहीं साला जिगर इस्पात करने का  

 

बहुत येड़ा हुआ बादल, सदाइच झोल करता रे

अपुन बोला मेरे भगवन नहीं बरसात करने का

 

बुरा टाइम भी हो तेरा मगर सब मामले सुलटा

अगर लाइफ जरा राप्चिक नवीं औकात करने का

 

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by kanta roy on August 30, 2015 at 9:39am
राऊरी बोले तो क्या मस्त लिखेला है बाप ! अपुन तो निहाल हो गया रे मामू ! क्या रापचिस गजल लिखेला है ... !!! बधाई तो बनताईच है आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी । हा हा हा हा ...:))))
Comment by Samar kabeer on August 29, 2015 at 11:31pm

जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,आज मैं आपका ये हुनर देखकर हक्का बक्का रह गया ,बाज़ारी ज़बान को आपने कितनी ख़ूबसूरती के साथ ग़ज़ल के पैकर में ढाल दिया ,इस सिन्फ़-ए-सुख़न को (विधा) उर्दू में "हज़ल" कहते हैं,और आपने इस सिन्फ़-ए-सुख़न का हक़ अदा कर दिया,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।

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