ग़ज़ल
(वहर 22 22 22 22 2 )
वो फिर घुस आया ,मन के समन्दर I
मैं छोड़ आया जिसे मन्दिर अंदर II
सब कसमें लेते हैं बदले की ,
अब रहे कहां बापू के बन्दर I
आजिज कोई हो नेमत देता ,
है कोई ऐसा मस्त कलन्दर I
अबरोधों से खुद है तुम्हें लड़ना ,
सम्भालो तुम अपने सभी सन्दरI
धन बल ज्ञान न बंधे जाति में ,
कौन यहाँ मुफलिस कौन सिकन्दर I
"मौलिक एवं अप्रकाशित "
Comment
भाई श्याम वर्मा जी, ग़ज़ल की सराहना के लिए तहदिल से आभारी हूँI
भण्डारी भाई ,ग़ज़ल प्रयास की सराहना के लिए दिल की गहराइयों से शुक्रिया कवूल करें I आपकी टिपणियां बिलकुल वाजिब हैं I
मतले के सानी में , ठीक कहा आपने की मन्दिर नहीं आना चाहिए Iसुधारने की कोशिश करता हूँ Iआप की टिपणी सदैब चाहूँगा iसाभार
आदरणीय डा. कंवर करतार भाई , गज़ल का प्रयास बहुत अच्छा हुआ है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ।
मतला आपका कुछ और समय चाहता है , काफिया मतले के उला मे और बाक़ी सभी शेर मे अंदर आ रहा है और , पर मतले के सानी मे मंदिर शब्द लेने के कारण , काफिया अंदिर आ रहा है , वहाँ भी मंदर लेना चाहिए था , वैसे मन्दर शब्द सही है या नही , मै नही कह कह सकता । थोड़ा सोच लीजियेगा ।
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल! आपको बहुत-बहुत बधाई! |
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