ग़ज़ल
(वहर : 2212 2212 2212 2212 )
वो दुश्मनी की सब हदों को पार करता ही रहा I
मैं माफ़ उसको जान कर हर बार करता ही रहा II
जो आह भर भर हर समय थे देखते राहें सदा ,
उनके दिलों से वो सदा व्यापार करता ही रहा I
दिल से न शाया था हटा, कुछ तो नजर ढूंढे तभी ,
पहचानता है क्या उसे, इनकार करता ही रहा I
राजा दिलों का वो बनें, है मर नहीं सकता कभी ,
इंसान पे जो भी सदा उपकार करता ही रहा I
आका बना खुद का, कभी गैरत न जो छोड़े वही
हो सुर्खरू, दुश्मन भले सौ वार करता ही रहा I
कुर्बान कर अपनी जवानी देश पर उसको है फख्र ,
की पीढियां बलिदान फिर भी प्यार करता ही रहा I
कर पाया कोई बन्दगी है देश की कुछ इस तरह ,
खुद के तसव्वुर से भी जो तकरार करता ही रहा I
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
कृषन मिश्र जी ग़ज़ल की दाद पर दिल से धन्याबादI
भाई मिश्र जी होसलाफ्साई के लिए कोटो कोटि धन्यावाद I
आदरणीय कँवर जी ..इस सुंदर सशक्त रचना के लिए ढेर सारी बधाई स्वीकार करे सादर
भंडारी भाई ,बस आपकी टिपणी का ही इन्तजारकर रहा था Iआपकी नजर में ग़ज़ल अच्छी बन पाई है तो मेरा प्रयास सफल हो गयाI बस इसी तरह नजरे इनायत से रचनाओं को तोलते रहिएगा ,आभारी हूँगा ,सादर I
आदरनीय डा. कँवर भाई , बहुत सुन्दर गज़ल हुई है , हार्दिक बधाइयाँ आपको ॥
श्याम बर्मा जी ग़ज़ल की सराहना के धन्यावादI
बहुत सुंदर, भावनाओं से परिपूर्ण इस गजल पर आपको बहुत बहुत बधाई सादर, |
राजा दिलों का वो बनें, है मर नहीं सकता कभी ,
इंसान पे जो भी सदा उपकार करता ही रहा I,,,,,,इंसानियत को परिभाषित करता सुन्दर शेर ,,बधाई आपको आ. डॉ.कंवर करतार 'खन्देह्ड़वी' जी |
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