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गजल
2122 2122 122
जब से'मैं बातें बनाने लगा हूँ,
मैं समझ में खूब आने लगा हूँ।
गालियाँ खायी बयाँ की हकीकत,
झूठ कह अब उनको' भाने लगा हूँ।
आरजू थी वे बुला लेते कभी,
मैं अभी उनके ठिकाने लगा हूँ।
तंग था मैं तंगदिल से निभाते,
ठाँव अब दिल में बनाने लगा हूँ।
तर्ज़ भी तब्दील होगी अभी तो,
बात से अब मैं रिझाने लगा हूँ।
गुत्थियाँ उलझी पड़ी थीं कभी की,
हौले'-से बातें बुझाने लगा हूँ।
हो रहा मैं हूँ अदीबो-मुकम्मिल,
उनके' मन का गीत गाने लगा हूँ।
छप गये पर्चे बहुत अब तलक हैं ,
घूम कर मैं अब लुटाने लगा हूँ।
हो गया हासिल समझ ताज अब तो
ताज को लोरी सुनाने लगा हूँ।
'मौलिक व अप्रकाशित'@मनन

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Comment by Ravi Shukla on November 2, 2015 at 2:36pm

आदरणीय मनन जी  शिल्‍प पर आपका प्रयास अच्‍छा होता जा रहा हैइसके लिये आप हमारी दिली बधाई स्‍वीकार करिये हालांकि

यदि इस मिसरे को देखें तो  छप गये पर्चे बहुत अब नाम के 2122 2122 122  इसमें ना को गिरा कर 1 और म को 2 नहीं कर सकते

 

जहा तक कथ्‍य की बात है तो वह स्‍वत: ही स्‍प्‍ष्‍ट होने में नहीं आ रहा है

दोनो मिसरो में एक निस्‍बत होनी चाहिये जिससे बात या खयाल अपने आपे ही पाठक तक पंहुच जाये ।

इस लिहाज से यदि ग़ज़ल के अश्‍आर को देखेंगे तो शायद प्रभावी प्रयास हो सके । सादर

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