1212 - 1122 - 1212 – 22 |
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हरेक बात, करामात कह रहा हूँ मैं |
वो दिन को रात कहें, रात कह रहा हूँ मैं |
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लगे है आज तो खाली ख़याल अच्छे दिन |
बदल रहें न ये हालात, कह रहा हूँ मैं |
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यकीं नहीं है जिन्हें शह को शह नहीं कहते |
क़ुबूल है ये मुझे मात, कह रहा हूँ मैं |
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जो कह रहा हूँ उसे वाकिया समझ बैठे |
करें जो गौर, वजूहात कह रहा हूँ मैं |
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हुई है रूह फकीरी में इस तरह तारी |
हरेक दिन को जुमेरात कह रहा हूँ मैं |
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वो दिन भी आएगा खुर्शीद जब नहीं होगा |
अगर थमेंगे न ज़ुल्मात कह रहा हूँ मैं |
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ये दिल की बात, ये फिक्रो-ख़याल है साहब |
जो देखता हूँ वही बात कह रहा हूँ मैं |
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खुदा न मान के आदम कहा, शिकायत ये |
कि उन की जात को कमजात कह रहा हूँ मैं |
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ये चाक दिल भी शराफत से सी लिया मैंने |
इन आँसुओं को भी बरसात कह रहा हूँ मैं |
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Comment
आदरणीय विजय निकोर सर ग़ज़ल पर सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु आपका हार्दिक आभार
आदरणीय समर कबीर जी, सराहना मार्गदर्शन और उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार. आपके मार्गदर्शन अनुसार मिसरे को यूं कहा है-
जमीन बन रही ज़ुल्मात कह रहा हूँ मैं
//
ये चाक दिल भी शराफत से सी लिया मैंने |
इन आँसुओं को भी बरसात कह रहा हूँ मैं// बहुत ही खूबसूरत गज़ल ! आनन्द आ गया। हार्दिक बधाई। |
आदरणीय श्याम नरेन् जी इस सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु आभार
बहुत खूब ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, गजल पर आपको दिल से बधाई
सादर
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