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"बादल !! देखो कितनी सुन्दर हरियाली , चलो हम कुछ देर यही टहलते है"
वो देखो मानव और प्रकृति भी है .संग नृत्य करेगे.
"बादल ने हवा का हाथ पकडते हुए  गुस्से मे कहा-- चलो!! यहाँ से  धरती माँ की गोद  मे  जहाँ सिर्फ़ प्रकृति बहन ही हो. हम वहा नृत्य करेगे".मानव तो कब का उसे छोड चुका है,बेचारी मेरी प्रकृति बहना
" बादल !!  ऐसा क्यो कह रहे हो. ये हरा रंग देखो चारो ओर कितना लुभावना है,प्रकृति का ही तो --"
" नही नही" हवा!!  अब यहाँ ना फूल है ,ना तितली,ना जंगली जानवर बस! मानव निर्मित अट्टलिकाऎ है.अब हमे यहाँ नही रहना
 यह तो आभासी है.इसे मानव ने हरे नोटो के साथ हरा रंग दिया है"

नयना(आरती) कानिटकर
05/12/2015
मौलिक एंव अप्रकाशित

Views: 385

Comment

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Comment by नयना(आरती)कानिटकर on December 8, 2015 at 1:01pm

आभार मोहन जी कथा पढने का

Comment by मोहन बेगोवाल on December 6, 2015 at 10:10pm

 प्रकृति  की बात पाती ये लघु - कथा , जिस में एक डर सा पेश किया है - बधाई हो 

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