हर आने जाने वाले पर
भौंक रहे कुत्ते
निर्बल को दौड़ा लेने में
मज़ा मिले, जब तो
क्यों ये भौंक रहे हैं, इससे
क्या मतलब इनको
अब हल्की सी आहट पर भी
चौंक रहे कुत्ते
हर गाड़ी का पीछा करते
सदा बिना मतलब
कई मिसालें बनीं, न जाने
ये सुधरेंगे कब
राजनीति, गौ की चरबी में
छौंक रहे कुत्ते
गर्मी इनसे सहन न होती
फिर भी ये हरदम
करते हरे भरे पेड़ों से
बातें बहुत गरम
हाँफ-हाँफ नफ़रत की भट्ठी
धौंक रहे कुत्ते
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
’कुत्तों’ को कोंसने में आपने रचना में तार्किकता का कबाड़ा कर दिया है, आदरणीय धर्मेन्द्रजी.
अब हल्की सी आहट पर भी / चौंक रहे कुत्ते.. क्या ’पहले’ के कुत्ते निठल्ले और आलसी हुआ करते थे, आदरणीय, जो ’अब’ का प्रयोग किया गया है ?
फिर, ये पंक्ति राजनीति, गौ की चरबी में / छौंक रहे कुत्ते.. . ऐसा कुत्ता कहाँ आपको नसीब हो गया, आदरणीय ? शायद ही ऐसे किसी ’कुत्ते’ को देखा गया होगा जो राजनीति के नाम पर ऐसा कुछ करता होगा. अलबत्ता, आप व्यक्तिगत या समूहगत (सामुहिक) तौर पर किसी वर्ण या वर्ग विशेष को ’कुत्ता’ न कहने लगे हों. लेकिन आदरणीय यह तो नितांत वैयक्तिक अभिव्यक्ति होगी न ? उसे नवगीत की कैटेगरी में रखा जाना चाहिये क्या ?
नवगीत ’उपमा-उपमेय’ को इस कदर नहीं अपनाता. न ही, व्यक्तिगत भावनाओं को समहुत रखने का आग्रह रखता है. आपसे नवगीत रचना पर ठोस प्रस्तुति की अपेक्षा हुआ करती है. यह रचना क्या ओबीओ पर नवगीत का सही नुमाइंदग़ी करती है ? मैं नवगीत के मंतव्य और उसकी तार्किकता के सापेक्ष बात कर रहा हूँ.
आदरणीय, मंच पर सहभागिता केलिए शुभेच्छाएँ एवं हार्दिक धन्यवाद.
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