रात की ओलावृष्टि के बाद गांव में मातम का माहौल था । हरिया खेत की मेड पर सर पकडे बैठा था कभी गिरी हुई फसल तो कभी पास में खेलते अपने बच्चों को देख रहा था । मन ही मन सोच रहा था... हे भगवान कैसे पालूंगा बिना मां के इन दोनों बच्चों को अगर किसानी छोड कर मजदूरी भी शुरू कर दूं तो मजदूरी मिलेगी कहां सारा गांव तो छोटे किसानों का ही है जिनके पास बमुश्किल चार पांच बिघे खेत हैं । शहर भी तो नहीं जा सकता इन बच्चों के साथ न रहने का ठौर न काम का ठिकाना ।
रह रहकर उसके दिमाग में वे चेहरे घुमने लगे जिनसे मदद मांगी जा सकती है लेकिन फिर खुद ही सोचता उसकी भी तो हालत ठीक नहीं होगी ।
सोचते सोचते उसने बच्चों की तरफ नजर घुमाई तो देखा बच्चे खेलते खेलते खेत के अंदर जा घुसे थे बडा लडका गिरे पौधों को पकड कर उठाए हुए था और लडकी उस पौधे को सहारा देने के लिए लकडी की खपच्ची लगा रही थी ।
थोडी देर वह उनको ध्यान से देखता रहा फिर अचानक ही मुस्कुरा उठा मन ही मन बुदबुदाने लगा.. अभी तो सिर्फ फसल गिरी है खराब होने में हफ्ता भर लगेगा अगर ऐसे ही सहारा मिल जाए तो ये पौधै फिर से खडे हो सकते हैं ।
कुछ देर पहले जो हरिया मातम मना रहा था वो अब पूरे जोशो खरोश से बच्चों के खेल में शामिल हो गया।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
घोर नैराश्य को हौसले के दम पर जीतने का सन्देश देती बहुत ही सकारात्मक लघुकथा प्रस्तुत हुई है कुमार गौरव जी.
कथानक पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिये
सुन्दर संदेशप्रद रचना आदरणीय कुमार गौरव जी, हार्दिक बधाई आपको !
हार्दिक बधाई आदरणीय कुमार गौरव जी!बहुत ही शानदार और सकारात्मक सोच लिये हुए लघुकथा!
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