घर से बहुत दूर निकल आई थी । जाने क्या उद्वेग था कि छोड़ आई पल भर में सब कुछ । पिछले कई सालों से मन बडा उद्विग्न था । जतन करके संभाल रखा था लेकिन बाढ़ का पानी , सुनता है क्या कभी किसी घाट या तटबंध को ! सो वेग ना सम्भल सकी , टूट गई । आते वक्त , घर से चार कदम दूर ही निकली थी कि आॅटो मिल गया ।
ऐसा लगा जैसे वह मेरा इंतज़ार ही कर रहा था ।
" स्टेशन चलोगे ? "
" बैठिये "
" कितना लोगे ? "
" १६० रूपये "
" क्या ,मीटर से नहीं चलोगे ? "
गृहणी ना जाने कब हावी हो चुकी थी । तोल - मोल करना जैसे खून में समा चुका था । याद आया कि पति बहुत चिढ़ जाते है मेरी इस आदत से अक्सर , लेकिन मै भी क्या करूं ,आदतन मजबूर थी । हँसी तैर गई चेहरे पर ।
" रहने दो बहन जी , मै नहीं जा रहा । कोई दुसरा आॅटो देख ले "
" अरे ,नहीं भाई ,चलो ,मै तो ट्राई कर रही थी कि कहीं तुम सच में कुछ कम कर ही दो " मै मुस्कुरा उठी ।
" आप भी ना मैम , " सुनकर वह भी मुस्कुरा उठा ।
पल भर में लगा कि यह मुझे पहचानता है । मेरे जैसे कितने आते होंगे । चढते , बैठते ,उतरते होंगे ।उसका क्या है !
लेकिन सब तो मेरे जैसे नहीं आते होंगे ! सोचती हुई पल भर को भूल बैठी कि मै घर छोड़ कर जा रही थी हमेशा के लिए ।
कोई नहीं था घर में । ताला लगा कर पडोस में चाभी देकर आई थी । पूछा था पडोसन ने कि " कहीं बाहर जा रही है आप ? "
" हाँ , दो दिन के लिए जा रही हूँ । ये शाम को आयेंगे तो आप चाभी दे दीजियेगा । " नजरें चुराते हुए कह कर जल्द ही पलट गई थी । डर था कि वे भी अपने स्त्रियोचित आचरण से मजबूर होकर और ना कुछ पूछ बैठे । तन्द्रा टूटी जब आॅटोवाले ने कहा कि ,
" मैडम ,आप यहीं की है या बाहर गाँव से आई है ? "
" यहीं की हूँ , मेरा घर है यहाँ " इसको क्या जरूरत जानने की , कि मै कहाँ की हूँ । हूँ ह !
" अभी बाहर जा रही हूँ कुछ दिनों के लिये । "
क्यों नहीं बता पाई इसे कि मै हमेशा के लिए जा रही हूँ ? क्या मुझे नहीं जाना था ? क्या मेरा मन और दिमाग दोनों एक दुसरे से विपरीत चल रहे है ?
आॅटो सरपट दौड़ रही थी सड़क पर स्टेशन की ओर । जाने क्यों ये ओवरब्रिज , ये सब्जी मार्केट , सब मुझे छुटता हुआ नजर आ रहा था ।
क्यों ऐसा लग रहा था कि मै , इन सबको फिर कभी नहीं देख पाऊँगी ! ओह ! ये आँसू किसलिए ?
पर्स से रूमाल निकालते वक्त मेरी नजर सामने लगी शीशे पर पड़ी , तो चौंक उठी ।
आॅटो वाला बार - बार मुझे घूरे जा रहा था । " क्यों इस तरह देख रहा है मुझे ? " मैने जल्दी से रूमाल निकाल अपने आँसुओं को पोंछ , मनोभाव को संयत कर , मुस्कुरा कर , सहज दिखने की , नाकाम कोशिश की । अचानक वो संजीदा हो उठा । अब नहीं मुस्कुरा रहा था । उसकी आँखें मेरी दुखों को जैसे ताड़ गई थी । मै अब आॅटो में बैठी बेचैन हो उठी । स्वंय को उघाड़ना मुझे कतई पसंद नहीं । मेरे मन को तो पिछले पच्चीस सालों में पति भी नहीं जान पाये थे ।
फिर तो ये एक अनजान आॅटोवाला ठहरा । इसकी हैसियत कहाँ इतनी कि मुझे जान लें !
मेरी नजर फिर उससे टकराई । वह अब भी सामने लगे आईने में मुझे चोरी - चोरी देखने की कोशिश कर रहा था । शायद मेरा नागवार लगना ,उसके देखने को , वो समझ चुका था ।
बाहर की तरफ देखने लगी । पंक्तिबद्ध फूलों की दुकान पर नजर पड़ते ही भरोसा हुआ कि अब स्टेशन आने ही वाला है ।
घर पर रात का खाना भी बना कर आई थी । बेटा काॅलेज से आकर शायद मुझे नहीं ढूंढेगा । वो तो खाना खाकर तुरंत कोचिंग क्लासेज़ के लिए निकल जायेगा ।
शाम को पति आयेंगे और फ्रेश होकर वाॅक पर निकल जायेंगे । जाने कब इनको मेरी जरूरत पड़े , या नहीं भी पड़े !
लेकिन मै तो अब जा रही हूँ , सब कुछ छोड़ कर , तो मै क्यों सोच रही हूँ उनके लिए कि मेरी जरूरत पडेगी उनको या नहीं !
क्या मेरे ना रहने से , मेरी कमी से जो उनको दुख होगा , यह एहसास सुखदायी होगा मेरे लिए ? नहीं ,
ये मुझे सुख नहीं देगा । तब तो मेरी तकलीफ़ बढ़ जायेगी । ऐसे में तो मेरा जाना मुश्किल ही नहीं ,नामुमकिन हो जायेगा ।
अचानक धचके के साथ आॅटो रूक गई । स्टेशन आ चुका था । जितनी दृढ़ता से मै इस आॅटो पर बैठी थी , उसके विपरीत बहुत ही कमजोर मनोबल के साथ , मै अब उतर रही थी । मन भरा हुआ था । मैने अपना पर्स संभाला । उसने लगेज निकाल कर सामने रख दिया । पर्स में से मैने रूपये गिन कर १६० उसकी तरफ बढाये ।
" नहीं मैम , १०० रूपये ही दीजिये आप "
" क्यों , तुम तो १६० कह रहे थे ? "
" नहीं ,आप सिर्फ १०० रूपये ही दीजिये "
इस अपनेपन से मेरा मन भीग गया ।वह भी जरा मन से जरा भीगा हुआ लगा मुझे । मैने १०० का नोट उसकी तरफ बढ़ा जैसे ही उसके चेहरे की तरफ देखी तो वो मेरी ही तरफ एकटक देखे जा रहा था , मानों मेरे चेहरे की समस्त रेखाओं को जान गया था ।उसके इस तरह देखने से मै अकचका गई ।
" क्या देख रहे हो तुम ? " पूछ बैठी मै ।
" मैम , ये मेरा नम्बर है । आप रख लो । कभी जरूरत पड़े तो इस भाई को याद कर लेना " कहते हुए उसने अपना कार्ड निकाल कर दिया तो मै भौंचक्की रह गई । आॅटोवाले के पास भी उसका अपना " विजिटिंग कार्ड " !
कार्ड को पढते हुए चौंक उठी । ये तो पेशेवर वकील है !
" तुम तो वकील हो ,फिर यह आॅटो ? "
" अरे मैम , जब वकालत नहीं चलती है तब यही अपना रोजगार होता है "
मै अब उससे बेहद प्रभावित थी । एक कर्मवीर आॅटो वाला , वकील के रूप में मुझे बहन सम्बोधित कर रहा था ।
" मैम ,कोई भी मदद लगे तो बिना संकोच के बताईयेगा , प्लीज़ ! " मदद की दरकार मुझे तो थी लेकिन स्वाभिमान गवारा नहीं करता है किसी मदद को ,इसलिए ,
" हाँ ,जरूर , मै फोन करूँगी तुमको " हामी भर , लगेज सम्भाल आगे बढ़ गई । सामने काऊँटर देख सोचने लगी ,
" किस गाड़ी की टिकट लूँ ? कहाँ जाऊँ ? " ढेरों सवाल मुंह बाये खड़े थे । एक बारगी पैर थरथरा उठे । कुछ देर के लिए सामने बैंच पर बैठ गई ।
पति के साथ हुए उस झगड़े का असर अब भी हावी था । गुस्से में ही सही , मेरा नाम उस शर्मा के साथ जोडने से पहले एक बार भी नहीं सोचा उन्होंने ।
नहीं , ऐसा अक्सर कर बैठते है और बाद में " ऐसा तो नहीं कहा मैने , तुमने गलत अर्थ लगा लिया " कह कर हमेशा कन्नी काट लेते है । इस बार जो हो सो हो , मै अब बरदास्त नहीं कर सकती हूँ । अकेले रह लूंगी । कोई काम ढूंढ लूंगी । कुछ नहीं तो , खाना बनाने का काम ही सही , लेकिन अपने सम्मान को रौंदने का अधिकार पति को भी नहीं दे सकती हूँ । झगड़े के वक्त कि कसैली बातें ,दिल में काँटे सी चुभन देे जाते है ।
वे भले ही भूल जाते हों ,लेकिन मुझे याद रहती है और दिनों दिन सालती रहती है । उम्र के इस पडाव में अब कैसे ,कहाँ...... ?
अचानक सामने कथरी ओढ़कर कोने में लेटी हुई औरत पर नजर पड़ी । उसके पास ही एक मैली कुचैली सी गठरी रखी है , शायद यही उसकी पूरी गृहस्थी होगी । स्टील की एक डोलची , उसके भिखमंगी होने को इशारा कर रही थी । उसे देख कर सहसा कुछ याद आ गया । पिछले दिनों पेपर में खबर पढी थी कि एक औरत अर्धविक्षिप्त सी स्टेशन एरिया में घूमती रहती है । रिक्शे वाले से लेकर , ट्रक वाले तक , उसे उठा कर ले जाते है और कहाँ - कहाँ से घुमाकर , फिर यहीं छोड़ जाते है । कहीं ये वही तो नहीं ?
मन सिहर उठा एकाएक । यह औरत , जाने कैसे बेघर हुई होगी ? निकाल दी गई होगी , पति या पिता के घर से ,या स्वंय मेरी तरह ........!
हठात् मन काँप उठा । हथेलियां पसीने से गीली हो उठी । एकदम से गला सूख आया । बहुत तेज प्यास लगी । स्टेशन से बाहर आ गई ।
" अरे , तुम अभी तक यहीं हो ? "
" जी , सवारी का इंतज़ार कर रहा था "
" चलो अब , तुम्हारी सवारी आ गई , वापस घर जाना है । अब आज कहीं नहीं जाती "
उसने मेरा सामान रख ,मुस्कुराते हुए आॅटो स्टार्ट किया ।
" एक बात बताऊँ आपको ? "
" क्या ? "
" मै जानता था कि आप वापस आओगी ,इसलिए आपका ही इंतज़ार कर रहा था "
" अच्छा ! " अब मै भी मुस्कुरा उठी ।
" जी ! "
" सही कह रहे हो तुम , घर छोडना जिंदगी छोडने जैसा ही होता है , आज मैने यह महसूस किया है ।"
घर लौट कर राहत हुई कि ताला पूर्ववत लटका हुआ था । पडोसी से चाभी लेकर अंदर सामान रख , आॅटो वाले को सौ रूपये देते हुए कहा " तुम परसों आना मेरे यहाँ "
" कहीं जाना है ? "
" अरे ,कहीं नहीं , परसों रक्षाबंधन है ना ! "
मौलिक और अप्रकाशि
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