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भूख और पेट / लघुकथा / कान्ता राॅय

आज फिर सुबह - सुबह वह सलाम बजाने पहुँच गया उनके घर । साथ में ब्रेड - अंडे का पैकेट भी ले आया था । खाली हाथ कैसे आता भला ! वे अफसर जो ठहरे ! सुना था कि उनको भूख बहुत लगती है ।
लेकिन भूखा तो वह भी था । उसके पेट में भी दिनों दिन भूख की आग बढ़ रही थी ।
लेकिन क्या करें ! नित नये पैंतरे बदलता ,जाने कब किस बात पर वे खुश हो जाये और उसका काम बन जायें !
सरकारी अफसरों का मिजाज़ और उनकी भूख , तो वह जानता था , पर मिटाने का तरीका अभी सीख रहा था ।

शुरू - शुरू में तो काजू की बरफी भी पहुँचाई , लेकिन उसका निर्वाह तंग जेब के कारण कायम नहीं रह पाया ।
बाद में तो फल और सूखे मेवों पर आया , भूख बढ़ती गई और टालमटोल चलती रही ।
कोशिश तो नहीं छोड़ सकता है । उसकी मजबूरी है । बिल्डिंग बनाने का ख़्वाब भी उसके पेट की भूख से जुड़ा हुआ था । कहीं वह भूख से बिलबिला कर मर ना जाये , कृशकाय , लम्बा सा लटकते चेहरे पर चिंता की लकीरों को समेटे हुए वह जैसे ही बाहर आया कि सेक्रेटरी ने टोक दिया ।

" क्या सुरेश जी , आप कब तक यूँ चक्कर लगाते रहेंगे , आपके वश में नहीं है यहाँ से काम करवाना । "

" क्यों ? काम तो ...! बस साहब , पास कर दे पेपर " वह मायूस था ।

" पेपर वर्क की बात कर रहा हूँ मै , समझते क्यों नहीं ,कि भूख सिर्फ अफसर को ही नहीं ,उनके नामुइंदो को भी लगती है "

" भूख ! आपको भी लगती है क्या ? बडी़ मेहरबानी होगी , कृपया अपनी भूख शांत कर मेरा काम देख लीजिये "

" काम तो हो जायेगा लेकिन इन ब्रेड अंडों से नहीं , कुछ गर्म-माँस, मदिरा की व्यवस्था कीजिये "

" मदिरा तो ठीक ,लेकिन यह गर्म-माँस क्या मतलब हुआ इसका "

" अपना काम करवाना है तो इन सबका मतलब समझना होगा " उसके कंधे पर हाथ रख आधे झड़ते से पीले दाँत निपोड़ वह खिखिया उठा ।

उसने अपने पैरों में पहने जूते की तरफ़ देखा । घिसी हुई सोल से तलुवा झाँक रहा था ।
" काम तो किसी भी हाल में करवाना हैै , जल्दी बताईये " भविष्य में जूते के अधिक उघड़ने से , वह सहसा डर गया । भूख और पेट दोनों का आकार अब सुरसा के मुँह जैसा बढ़ता जा रहा था ।


मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by kanta roy on March 28, 2016 at 10:18am

आदरणीय  लक्ष्मण रामानुज  जी , आपने  कथा  के  विषय की  गंभीरता  को  समझा ये  मुझे  प्रोस्त्साहित  कर  गया  . दिल  से  आभार  व्यक्त  करती  हूँ 

Comment by kanta roy on March 28, 2016 at 10:16am

कथा का  आपके  मन  तक  पहुँच  जाना मेरे  लिए सुखद  एहसास  है  आदरणीय समर  कबीर  जी . तहेदिल  आभारी  हूँ 

Comment by kanta roy on March 28, 2016 at 10:15am

आदरणीय सुशील सरना  जी , आप  जैसे साहित्य  के  मर्मज्ञ से कथा  पर  इतना  वितार्पूर्ण  प्रतिक्रया  पाना  मेरे  लिए  " पदक " के  सामान  हुआ  है  . ह्रदय  से  आभार  आपको 

Comment by kanta roy on March 28, 2016 at 10:13am

कथा पर अपनी  सकारात्मक प्रतिक्रया से मेरा  उत्साह  बढाने  के  लिए  बहुत  बहुत  आभार  आपको  आदरणीय राहिला  जी  

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 24, 2016 at 10:40am

लघु कथा का अच्छा विषय चुना है | सामयिक समस्या पर लघुकथा रचने के लिए बधाई 

Comment by Samar kabeer on February 23, 2016 at 3:26pm
मोहतरमा कांता रॉय जी आदाब,शानदा विषय,शानदार लेखन,मन को छू गई आपकी लघुकथा,दिल से बधाई स्वीकार करें !
Comment by Sushil Sarna on February 23, 2016 at 1:48pm

" अपना काम करवाना है तो इन सबका मतलब समझना होगा " उसके कंधे पर हाथ रख आधे झड़ते से पीले दाँत निपोड़ वह खिखिया उठा ।

उसने अपने पैरों में पहने जूते की तरफ़ देखा । घिसी हुई सोल से तलुवा झाँक रहा था ।
" काम तो किसी भी हाल में करवाना हैै , जल्दी बताईये " भविष्य में जूते के अधिक उघड़ने से , वह सहसा डर गया । भूख और पेट दोनों का आकार अब सुरसा के मुँह जैसा बढ़ता जा रहा था ।

आ. कान्ता रॉय जी अपने प्रस्तुत लघु कथा के माध्यम से समाज व्याप्त इस अवांछित कृत्य को दर्शा कर एक साहसिक मानसिकता का परिचय दिया है। ये भूख वास्तव में सुरसा के मुख की तरह बढ़कर समाज और देश को दीमक की तरह चाट रही है। इस श्रेष्ठ प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें।

Comment by Rahila on February 23, 2016 at 11:22am
जिस काम के लिये अफसर दफ्तर में बैठे हैं और तन्खाह पा रहे है । उस काम को बिना दक्षिणा लिये आज की तारीख में कोई नहीं करता ।इस सिस्टम का ना चाह कर भी आप हिस्सा तब बन जाते हो जब कोई काम किसी भी हालत में कराना आवश्यक हो जाय ।बहुत बधाई आपको आदरणीया कांता दी !इस मुद्दे को अपनी लेखनी से उठाने के लिये । सादर

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