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कितना टूटा कितना हारा

कितना टूटा कितना हारा
ज़िन्दगी ने कितना मारा

हर घङी मातम है
मायूसी का आलम है
चारों ओर निराशा है
अश्रुमिश्रित भाषा है
कलम भी मेरी सब है जाने
दु:ख के मेरे क्या हैं माने
कि झूठे उद्गारों की ज़द में गर में
खुशी कभी जो लिखना भी चाहूँ
झूठ नहीं यह सहती है
'गम ही गम हैं' कहती है।
नादां है यह ये न जाने जग में
सच ही सदा न चलता है
सफेदपोशी का नक़ाब ओढे
सफेद झूठ मचलता है
ऐसे झूठे मोती पिरो के
माला बनाना चाहूँ मैं
चाबी का जिसकी पता नहीं
ऐसा ताला बनाना चाहूँ मैं
आत्मा नहीं भी होगी तो क्या
शरीर तो कृति में होगा ही
अदृश्य आत्मा का करना भी क्या
शरीर ही सबको दिखता है
महापुरुष भी तो यही कहें
जो दिखता है वो बिकता है
इसी तरह झूठे उद्गारों से मैं हवाई किले बनाऊंगा
जितना चाहूँ उतना यश मैं घर बैठे कमाऊंगा
पर उफ़!कलम ये मेरी,हाय! झूठ नहीं यह सहती है
लिखना चाहूँ खुशी अगर तो 'गम ही गम हैं' कहती है

तो सच्ची संवेदनाओं का लेके पिटारा
चल रहा हूँ मैं बनजारा
कितना टूटा कितना हारा
ज़िन्दगी ने कितना मारा।

-आशीश पैन्यूली

(मौलिक एवम् अप्रकाशित)

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