१२१२/११२२/१२१२/२२ (११२)
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नए मिज़ाज के लोगों में तल्खियाँ हैं बहुत,
कई ख़ुदा से, कई ख़ुद से सरगिराँ हैं बहुत.
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किसी के मिलने मिलाने का पालिये न भरम,
ज़मीं-फ़लक में उफ़ुक़ पर भी दूरियाँ हैं बहुत.
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अभी ग़ज़ल में कई रँग और भरने हैं,
अभी ख़याल की शाख़ों पे तितलियाँ हैं बहुत.
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सियासी चाल है हिन्दी की जंग उर्दू से,
सहेलियाँ हैं ये बचपन की; हमज़बाँ हैं बहुत.
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परिंदे यादों के, आ बैठते हैं ताक़ों पर,
उजाड़ माज़ी के खंडर में खिड़कियाँ हैं बहुत.
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गुरूर ‘नूर” न कर; सिर्फ़ तू नहीं तन्हा,
ज़माने भर में तेरे जैसे राएगाँ हैं बहुत.
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निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित
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