अपनी क़बा में .....
अहसासों की कभी
हदें नहीं होती
नफ़स और नफ़स के दरमियाँ
ये ज़िंदा रहते हैं
ये तुम्हारा वहम है कि
तुम मुझसे दूर हो
तुम जहां भी हो
मेरी साँसों की हद में हो
तुम कस्तूरी से
मेरी रूह में बसे हो
हर शब मैं तुम्हारी महक से लिपट
परिंदा बन जाती हूँ
तुम से मिलने की
इक अज़ीब सी ज़िद कर जाती हूँ
बंद पलकों में
तुम्हारे ख़्वाबों की दस्तक से
रूह जिस्मानी क़बा से
बाहर आ जाती है
तुम से मिलती है
गिले शिकवे करती है
निशाते-तलब के लिए लब
कसमसाते हैं
अफ़सुर्दा से लम्हों की
दास्तान दोहराते हैं
तिश्नागर चश्म की नमी
छुप नहीं पाती
अपने रुखसार पे
मैं तुम्हें महसूस करती हूँ
तुम्हारे लब
मेरे अश्कों की नमीं सोख लेते हैं
मैं तन्हा रह जाती हूँ
फिर इक नयी शब
इक नए मिलन के इंतज़ार में
अपनी क़बा में लौट आती हूँ
निशाते-तलब =आनंद की अभिलाषा ,अफ़सुर्दा=खिन्न
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय बशर भारतीय जी प्रस्तुति पर आपकी उत्साहवर्धक प्रशंसा का हार्दिक आभार।
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