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तीर लगता आज सूना

बादल सा पल फिसल गया  

बिन बरसे ही निकल गया 
जाने गया किस व्यथित तीरे 
चुपके चुपके धीरे  धीरे 
धरा धरी सी अवाक रह गयी 
विरहनी सी निर्वाक  रह गयी 
बदरा जाने क्या कह  गया 
अश्रू ठहरा फिर बह गया  
उर्मिला की  इक आस सी 
अमावस में उजास सी 
गले सा कुछ रुद्ध गया 
दिया जला और बुझ गया 
कागा भी  कगराये तो क्या 
पलक पांवड़ा बिछाये तो क्या 
नयन बावरे राह  बुहारे 
पपीहा पी पी पीड़ पुकारे  
व्याकुल राहें ब्याकुल  राधा
मन भर  पाँव अनगिन बाधा 
जन मन धन  का रेला दूना 
क्यों तीर लगता आज सूना 
----------------------------------------
अमिता  तिवारी 
मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on June 5, 2016 at 8:29pm
आदरणीया अमिता तिवारी जी बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति हुई है। सस्नेह बधाई स्वीकार करें।
Comment by amita tiwari on June 5, 2016 at 8:24pm

"आदरणीया कांता जी, कल्पना जी,

आपकी प्रोत्साहित टिप्पणी के लिए सादर आभार।

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 2, 2016 at 3:41pm

सुंदर भावों को पिरोया है आदरणीया अमिता जी , बधाई स्वीकारें |

Comment by kanta roy on June 2, 2016 at 11:08am
बादल सा पल फिसल गया
बिन बरसे ही निकल गया
जाने गया किस व्यथित तीरे
चुपके चुपके धीरे धीरे ..... हृदय से निकली पंक्तियाँ हृदय में जाकर ही वास करती है । भावों में पिरोये हुए मन को लुभाती सुंदर रचना सृजित हुई है यहाँ आपके द्वारा आदरणीया अमिता जी । बधाई प्रेषित है ।

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