आते है गंदले कीचड़े उथले नारे नदी
मिलते है गंगा में और गंगा हो जाते हैं
पर गंगा बन मिलते है जब सागर में
गंगा के नामो निशाँ मिट जाते हैं .....
बरगद के नीचे जो उगोगे
तो बढ़ नहीं पाओगे
सुरक्षित तो रह लोगे
संवर नहीं पाओगे
आंधी तूफ़ान से भी बचोगे ज़रूर
पर फल फूल नहीं पाओगे
न शाखा को मिलेगा आसमान
न जड़ को ज़मीं दे पाओगे
अब चुनाव तुम्हारा है
या आंधी तूफानों को झेलो
अपनी ज़मीं अपना आसमान बनाओ
या केकड़े बन सिमटते रहो सहते रहो
जैसे हो तैसे बस चमड़ी बचाओ
चुनाव तुम्हारा है
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
मान्य राजेश जी, श्री सुनील जी ,भंडारी जी .महिर्षि त्रिपाठी जी ,प्रतिभा पांडे जी एवं श्री सुरेश कुमार कल्याण जी
आपकी टिप्पणियों के लिए ह्रदय से आभार
सादर
अमिता
बरगद के नीचे जो उगोगे
तो बढ़ नहीं पाओगे
सुरक्षित तो रह लोगे
संवर नहीं पाओगे---बहुत सार्थक बात वाह सुन्दर रचना अमिता जी बहुत बहुत बधाई
आदरणीया अमिता जी , अच्छी सीख दे रही है आपकी रचना , हार्दिक बधाइयाँ ।
अब चुनाव तुम्हारा है
या आंधी तूफानों को झेलो
अपनी ज़मीं अपना आसमान बनाओ
या केकड़े बन सिमटते रहो सहते रहो
जैसे हो तैसे बस चमड़ी बचाओ
चुनाव तुम्हारा है ..... बहुत गंभीर बात कही है आप ने , बधाई प्रेषित है आपको इस सार्थक रचना पर आदरणीया अमिता जी
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