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लगता है अब काला पैसा खेल रहा है
मुल्क हमारा इसीलिये तो झेल रहा है
वर्षो तक अंधों के जैसे राज किया जो
वो भी देखो प्रश्न हज़ारों पेल रहा है
धर्म अगर केवल होता तो ये ना होता
मगर धर्म से राज नीति का मेल रहा है
कैसे उसकी यारी पर विश्वास करूँ मैं
मुझ पानी से मिला नहीं, जो तेल रहा है
देखो चीख रहा है वो भी परचम ले कर
जो ख़ुद अपने ही निजाम में फेल रहा है
वो चेह्रा जो चीख रहा है सबसे ज्यादा
उसका तो घर बार हमेशा जेल रहा है
जीत न पायेगा शतरंजी खेल कभी तू
वो जो चाहा तू वो गोटी खेल रहा है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरनीय आशुतोष भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..इस ग़ज़ल के माध्यम से आपने खरे खरे अंदाज में बात की है ..हर शेर बढ़िया है इस रचना के लिए ह्रदय से बधाई स्वीकार करें सादर
आदरणीय राजेन्द्र भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका ह्र्दय से अभार ।
आदरणीय महेन्द्र भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
आदरणीय सुरेश भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
आदरणीया राजेश जी , प्रबन्धन मे ( प्रबन्ध करने में ) फेल होना एक बात है , और खुद के प्रबन्धन रहते स्वयं फेल हो जाना और बात है ।
मै दूसरी वाकी बात कहना चाह रहा हूँ । सब अधिकार खुद के पास होते हुये स्वयम व्यक्तिग रूप से फेल हो गये , यानी खुद कोई प्रगति नही कर पाये । प्रबन्धन का फेल होना एक समूह का फेल होना होता है , किसी एक व्यक्ति का नही । अब देखिये शे र को --
देखो चीख रहा है वो भी परचम ले कर
जो ख़ुद अपने ही निजाम में फेल रहा है
वैसे आपका कहना भी सही लग रहा है आदरणीय ---अपने सिस्टम में फेल रहा है
ये हो सकता है आदरणीय ---जो ख़ुद अपने ही निज़ामत में फेल रहा है-----अर्थात अपने ही मेनेजमेंट में फेल रहा
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