साहब ए इश्क़1 को अफ़गार2 किया है मैंने
बेवफ़ा सुन ले तुझे प्यार किया है मैंने
कोई सौदागर ए ग़म3 हो तो इसे ले जाये
दर्द ओ ग़म को सरे बाज़ार किया है मैंने
दिल की दहलीज़4 पे रख के तेरी यादों के चिराग
हर शब-ए-हिज़्र5 को गुलज़ार किया है मैंने
दर्द पिघले तो न बहने लगे आँखों से कहीं
दिल के ज़ख़्मों को ख़बरदार किया है मैंने
उसकी रुसवाई6 न हो बज़्म7 की ग़ैरत8 भी रहे
चश्म ए पुरनम9 से ही गुफ़्तार10 किया है मैंने
बोझ दिल पे लिए आया था वो मुझसे मिलने
ऐसे इक वस्ल11 से इंकार किया है मैंने
वो मेरा होगा तो आएगा लौट के, उसको
फैसले के लिए मुख़्तार12 किया है मैंने
टूटी कश्ती में मुहब्बत का सफ़र है 'सूरज'
चाहतों को तिरी पतवार किया है मैंने
डॉ सूर्या बाली 'सूरज'
(मौलिक व अप्रकाशित)
1. साहब ए इश्क़ = दिल 2.अफ़गार= घायल 3. सौदागर ए ग़म = दुख का व्यापारी 4.दहलीज़ = चौखट 5. शब-ए-हिज़्र=वियोग की रात 6. रुसवाई= बदनामी 7. बज़्म= महफिल 8. ग़ैरत =स्वाभिमान 9.आंसुओं से भीगी आँखें 10. गुफ़्तार= बातचीत 11. वस्ल= मिलन 12. मुख़्तार = स्वतंत्र, आज़ाद
Comment
महेंद्र जी, धर्मेंद्र जी, गिरिराज जी और आशुतोष जी आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया । आप सभी ममनून हूँ
दिल की दहलीज़4 पे रख के तेरी यादों के चिराग
हर शब-ए-हिज़्र5 को गुलज़ार किया है मैंने
उसकी रुसवाई न हो बज़्म की ग़ैरत भी रहे
चश्म ए पुरनम से ही गुफ़्तार किया है मैंने -- क्या बात है !
आदरणीय सूर्याबाली भाई , बहुत नाज़ुक खयाल के शेर हुये हैं , पूरी गज़ल लाजवाब है , आपको दिली मुबारकबाद इस ग़ज़ल के लिये
अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय सूर्या जी, दाद कुबूल कीजिए
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