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ग़ज़ल :- पहरे शब्दों पर भी अब पड़ने लगे

ग़ज़ल :- पहरे शब्दों पर भी अब पड़ने लगे

पहरे शब्दों पर भी अब पड़ने लगे ,

घाव जो गहरे थे अब बढ़ने लगे |

 

हमने जब पूछा कि कैसे हैं जनाब ,

खामखा ही मुझसे वो लड़ने लगे |

 

यूं ग़ज़ल की महफ़िलें सजने लगीं ,

नीद में हम काफिये गढ़ने लगे |

 

गलतियाँ आकार जब लेने लगीं ,

दोष अपना मुझपे वो मढने लगे |

 

इस ग़ज़ल के शेर हैं सोये हुए ,

आप सोये शेर से डरने लगे |

 

जो दुआएं दे नहीं सकते मुझे ,

नाम मेरे मर्सिये पढ़ने लगे |

 

वक्त है जलती चिता और राख हम ,

अश्क क्यों फिर आँख से झरने लगे |

 

आओ उन पौधों को सींचें आज फिर,

वक्त से पहले ही जो झड़ने लगे |

 

नाव नन्हें नन्हें हाथों देखकर ,

गड्ढे सारे शहर के भरने लगे |

 

{अभिनव अरुण की डायरी से}

 

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Comment

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Comment by Noorain Ansari on August 9, 2011 at 12:19pm
बहूत सुंदर अभिब्यक्ति अरुण जी..
आपके लिखे हर ग़ज़ल मन के कागज पे गहरे छाप छोड़ते है..
Comment by Abhinav Arun on July 19, 2011 at 2:19pm

शशि जी हार्दिक आभार आपका !!आपका स्नेह मिलता रहे यही कामना है !!

Comment by Shashi Mehra on July 19, 2011 at 10:48am
saari ki saari gajal hi bhut khubsurat aur ba-maayna hai. andaaz-e-byaan , lafzon ki lataafa lazeez hai.rachna ke liye prshansa ke hakdaar ho. sweekar karo.
Comment by Abhinav Arun on June 14, 2011 at 7:51pm

आभार श्यामल जी आपका यहाँ आना और टिप्पणी देना ही अपने आप में सुखद है !!बहुत बहुत शुक्रिया !!!

Comment by Shyam Bihari Shyamal on June 13, 2011 at 8:58am
बहुत जीवंत... अरुण अभिनव जी, आपने इस गजल में अच्‍छे भाव-प्रतीकों का प्रयोग किया है ...बधाई...
Comment by Abhinav Arun on May 18, 2011 at 2:08pm
abhaar satish jee !
Comment by satish mapatpuri on May 18, 2011 at 1:56pm

हमने जब पूछा कि कैसे हैं जनाब ,

खामखा ही मुझसे वो लड़ने लगे |

आओ उन पौधों को सींचें आज फिर,

वक्त से पहले ही जो झड़ने लगे |


सुन्दर अभिव्यक्ति  

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