थी भोर की बेला सुहानी, भीड़ गंगा तट जुटी !
इक वृद्ध सन्यासी चला, गंगा नहा अपनी कुटी !
ओढ़े दुशाला राम नामी, गेरुवा पट रंग था !
कर में कमंडल था सुशोभित, भस्म चर्चित अंग था !!
प्रभु नाम का शुभ जाप करता, साधु कुछ आगे बढा !
टकरा गया यति से युवा, तब दोष साधू ने मढ़ा !
अंधे अरे सुन मूर्ख पागल ! क्या गजब तूने किया ?
पापी युवक छूकर मुझे तूने अपावन कर दिया !!
तन मन अपावन हो गया, बस आज तेरे संग में !
पावन बनूँगा मैं दुबारा, फिर नहाकर गंग में !
सबसे अपावन क्रोध है, उर में बसाया आपने !
बाहर निकाला औ उसे, मुझपर उछाला आपने !!
इस काज गुरुवर स्नान का, बस फर्ज तो मेरा बने !
बोला युवक नत भाव हो, प्रभु क्रोध ना मन में जनें !
बातें समझ यह ज्ञान की, वह साधु कुछ लज्जित हुआ !
मन से मिटाकर क्रोध सब, देता रहा वह बस दुआ !!
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
रचना को अपना बहुमूल्य समय देकर आपने मेरा उत्साहवर्धन किया अतएव आपका भी हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
सादर
रचना को अपना समय देकर आपने मेरा उत्साहवर्धन किया अतएव आपका हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ आदरणीय समर कबीर साहब
सादर
आदरनीय सत्य नारायण भाई , संदेश देती एक छोटी सी कहानी को आपने काव्य रूप दिया है , बहुत सुंदर , बहुत बधाई ।
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