लिपट चंद्रिका चंद्र, करें वे प्रणय परस्पर।
निरखें उन्हें चकोर, भाग्य को कोसें सत्वर।।
हाय रूप सुकुमार, कंचु अरुणाभा वाली।
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥
व्याकुल हुए चकोर, मेघ चंदा को ढक ले।
रसधर सुन्दर अधर, हृदय कहता है छू ले।।
सीमा अपनी जान, लगे सब रीता खाली।
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥
रहे उनीदे नैन, सजग अब निरखे उनको।
देख देख हरषाय, तृप्त करते निज मन को।।
हुए अधूरे आप, नहीं वह मिलने वाली।
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥
उडगन छुपते भोर, सूर्य जब चमके नभ में।
धरा जगी चहुंओर, सचल जीवन हो जग में।
हुये अस्त कविराय, उदित वह होने वाली।
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥
जिसमें ढूढ़ा काव्य, नहीं वह काव्य हमारी।
जहां काव्य मौजूद, पहुंच न दृष्टि हमारी।
नहीं उभरते भाव, शब्द आडम्बर खाली।।
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥
अहा कपासी रूप, भीत छूने से लगता।
कहीं लगे न मैल, प्रदूषित बने धवलता।।
फीका लगे तुषार, सार आगारों वाली।
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥
निरभ्र रूप आकाश, वही है उतरा मानो।
द्वय रवि उसके नैन, तेज है बिखरा जानो।।
उर के भीतर उतर, रही है उसकी लाली।
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥
मौलिक व अप्रकाशित
जिन्दगी की जद्दोजहद में कुछ इस तरह उलझा कि एक लम्बे समय तक इस मंच से दूर रहा। जिन्दगी की दुश्वारियों को कुछेक कदम पीछे छोड़ते हुए एकबार पुनः इस सम्मानित मंच पर आना हुआ है। आप सब गुरुजनों से पूर्ववत् आशीर्वाद और स्नेह की आकांक्षा है। इसी क्रम में पूर्व में लिखी एक रचना "सिन्धु सी नयनों वाली" का अगला भाग आप सबके चरणों में समर्पित करता हूं। इस गीत को मैंने अपने एक अनन्य मित्र विनय कुमार पाठक की प्रेरणा से लिखा है। अतः इसे उन्हें समर्पित करता हूं।
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Comment
आदरणीय लक्ष्मन सर, सादर नमन. हाँ सर कैरियर सम्बन्धी अनिश्चितता और लक्ष्य की प्रतिबद्धता को लेकर काफी व्यस्तता के कारण इस सम्मानित और प्रिय मंच पर आना नही हो पा रहा था. अतः प्रतिभागिता कम ही हो पा रही थी. मैं स्वयं भी आप सब सुधी गुनी जनो के रचना अधययन लाभ से वंचित ही था. पुनः आगमन हुआ है तो अच्छा लग रहा है.
रचना में रह गयी कमियों को दूर करता हु.
सादर
आदरणीय गोपाल सर! सादर नमन. रचना की सराहना के लिए आपका आभार. वस्तुतः यह कविता नायिका को संबोधित है. अतः मैंने काव्य हमारी लिखा है.
हाँ मात्रा की अधिकता को देखता हूँ कैसे कम कर सकते हैं.
सादर
आदरणीय विजय निकोर सर आपका हार्दिक आभार
अादरणीय Samar kabeer जी नमस्कार
रचना पर आपकी सराहना से मन गदद हैा अापका बहुत बहुत आभ्ाार
जिसमें ढूढ़ा काव्य, नहीं वह काव्य हमारी।------------काव्य हमारी या काव्य हमारा ---- निरभ्र रूप आकाश में एक मात्रा अधिक हुयी है . . आपकी रचना अछ्ही है तत्सम शब्दों का बेहतरीन उपयोग हुआ है . सादर .
आपकी रचना पढ़ कर आनन्द आया। भधाई।
सुंदर सटीक और मनोहारी रोला छंद में गीत रचना के लिए हार्दिक बधाई श्री विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी जी | बहुत समय बाद आपकी रचना पढ़कर अच्छा लगा -
जिसमें ढूढ़ा काव्य, नहीं वह काव्य हमारी।
जहां काव्य मौजूद, पहुंच न दृष्टि हमारी।
नहीं उभरते भाव, शब्द आडम्बर खाली।।
स्वर्ग परी समरूप, सिन्धु सी नयनों वाली॥ - प्रथम दोनों पंक्तियों में "हमारी " शब्द है | प्रथम पंक्ति में बदलाव हो सके तो देखे |
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