काफिया :ओं ; रदीफ़: ने ले लिया
बह्र: २२१ २१२१ १२२१ २१२
बन्दे का काम घेर, उसूलों ने ले लिया
है गलतियाँ रहस्य, बहानों ने ले लिया |१
वो बात जो थी कैद तेरे दिल के जेल में
आज़ाद करना काम अदाओं ने ले लिया |२
चुपके से निकले घर से, सनम ने बताया था
वो जिंदगी का राज़ निशानों ने ले लिया |३
धरती को चाँदनी ने बनायीं मनोरमा
विश्वास नेकनाम सितारों ने ले लिया |४
मिलता है सुब्ह शाम समय रिक्त अब नहीं
पूरा दिवस व रात्रि किताबों ने ले लिया |५
बादल बरसते पौष, हुए फायदा बहुत
आनंद सब उधार फिजाओं ने ले लिया |६
सामान थे अनेक प्रसाधन के थे सकल
चारो तरफ से घेर हसीनों ने ले लिया |७
आकाश है पलंग बिछाना कपास है
नीरद उड़ान तेज हवाओं ने ले लिया |८
वादा बहुत किया है कुशल क्षेम आयगा
सबका है साथ हाथ बयानों ने ले लिया |
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय काली पद भाई , ग़ज़ल के प्रयास के लिये हार्दिक बधाइयाँ आपको । मै आ. समर भाई और मिथिलेश भाई जी दोनों की बातों से सहमत हूँ , भाषा और व्याकरण की कमज़ोरी ग़ज़ल को कमज़ोर कर देती है . कृपया खयाल कीजियेगा ।
आदरणीय कालीपद प्रसाद मंडल जी, बह्र तो आपने खूब साधी है, अब केवल कथ्य पर अभ्यास चाहती है ग़ज़ल. ग़ज़ल का मिसरा-ए-उला पढ़ने के बाद मिसरा-ए-सानी पढने की बेताबी हो और मिसरा-ए-सानी पढ़ते ही वाह निकले, कुछ ऐसे मिसरों में ग़ज़ल को बदलना होगा. बहरहाल इस प्रयास पर बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें. सादर
आ समीर कबीर जी आदाब ,ग़ज़ल पर शिरकत करने के लिए और अपनी राय देने के लिए शुक्रिया |
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