दीवार के कान - लघुकथा –
शंकर सिंह एक अनुशासन प्रिय और जिम्मेवार अधिकारी थे। कारखाने में और कोलोनी में उनकी अच्छी छवि थी। लेकिन कल कारखाने में उनके साथ जो घटना हुई थी, उसने उनको विचलित कर दिया था। एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से मामूली वार्तालाप ने एक उग्र झड़प का रूप ले लिया। यूनियन लीडर्स के बीच में आने से मामला कुछ ज्यादा ही तूल पकड़ गया। मि० सिंह से हाथापाई तक हो गयी। मैनेजमेंट ने तुरंत मि० सिंह को घर भेज दिया था। उनके आने के बाद प्रेस वाले, मीडिया वाले भी कारखाने तक आगये थे।
पिछली रात बड़े तनाव में निकली थी। सुबह पांच बजे से मि० सिंह कभी बरामदे में कभी लॉन में चक्कर काट रहे थे। उन्हें बेसब्री से आज के अखबार का इंतज़ार था। वे देखना चाहते थे कि प्रेस ने घटना को क्या रंग दिया था। इसलिये उनकी निगाहें बार बार गेट की तरफ उठ जाती थीं।सात बजने को आये मगर अखबार वाला कहीं नज़र नहीं आरहा था।इसी उधेडबुन में सुबह से तीन चार कप चाय पी चुके थे।
मि० सिंह ने देखा कि सामने गुप्ता जी के गेट में तो अखबार लगा हुआ है फिर हमारा क्यों नहीं आया। अखबार पढ़ने की बेचेनी बढ़ती जा रही थी। इसी ऊहापोह में मि० सिंह बाहर निकले और इधर उधर देखते हुए चुपचाप गुप्ता जी का अखबार निकाल लाये। और सीधे बाथरूम में घुस गये। तसल्ली से बैठकर पूरा अखबार छान मारा। मगर कारखाने की कोई खबर नहीं दिखी।
तभी दरवाजे पर घंटी बजी। हड़बड़ाहट में उन्होंने द्वार खोला। सामने गुप्ता जी खड़े थे,
"सिंह साहब, आज हमारा अखबार नहीं आया।आपका आया क्या"?
"देखा तो नहीं, शायद नहीं आया"।
गुप्ता जी को विदा करके मि० सिंह जैसे ही पीछे मुड़े, उनकी सात वर्षीय बेटी हाथ में अखबार लिये खड़ी थी,
"पापा, हमारे अखबार पर गुप्ता अंकल का मकान नंबर क्यों लिखा है"?
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय प्रतिभा जी।लघुकथा आपको अच्छी लगी, शुक्रिया।लघुकथा में जो बात उठाई गयी है, वह तो आप समझ ही चुके हैं।वास्तविकता यही है कि ज्यादातर लोग ईमानदार और सचरित्र होने का दिखावा या दावा करते हैं लेकिन अवसर मिलने पर या आवश्यकता पड़ने पर फ़िसल जाते हैं।सादर।
इस कथा का मर्म जो मै समझी हूँ वो ये है कि हम अपनी सहूलियतों के अनुसार ईमानदार और बेईमान हो जाते हैं , आपने कथा एक घटना से शुरू की जिससे शंकर सिंह आहत हुएI अगर इस घटना को आप उनकी इमानदारी से जोड़ कर दिखाते तो अंत का ये पञ्च अधिक प्रभावशाली होता . फिर भी आपकी ये कथा मुझे बहुत अच्छी लगी ...हार्दिक बधाई आपको आदरणीय तेजवीर सिंह जी .
हार्दिक आभार आदरणीय सतविंदर जी, कि आपको लघुकथा पसन्द आई ।इस लघुकथा के द्वारा यही बात कहने का प्रयास किया है कि इंसान कितना ही मज़बूत और सच्चा हो, उसकी भी दवाब झेलने की एक सीमा होती है।अत्यधिक दवाब में अच्छे अच्छे महारथी भी बिखर जाते हैं।धर्मराज युधिष्ठिर भी महाभारत के युद्ध काल में एक बार झूठ बोल बैठे थे।सादर।
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