22 22 22 22 22 2
छिपे हुये फिर सारे बाहर निकले हैं
फिर शब्दों के लेकर ख़ंज़र निकले हैं
मोम चढ़े चहरे गर्मी में जब आये
सबके अंदर केवल पत्थर निकले हैं
आइनों से जो भी नफ़रत करते थे
जेबों मे सब ले के पत्थर निकले हैं
बाहर दवा छिड़क भी लें तो क्या होगा
इंसाँ दीमक जैसे अन्दर निकले हैं
अपनी गलती बून्दों सी दिखलाये, पर्
जब नापे तो सारे सागर निकले हैं
औंधे पड़े हुये हैं सागर से दावे
कुछ नाले, तो बाक़ी गागर निकले हैं
क्या सांपों के बिल में पानी चला गया ?
तड़प तड़प के क्यूँ वो बाहर निकले हैं
आवाज़ तभी होती है जब उथला पन हो
चुप्पी से ही सभी समन्दर निकलें हैं
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सतविन्द्र भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभार ।
आदरणीय वासुदेव भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरणीय वासुदेव भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरनीय मो. आरिफ भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
आदरणीय आशुतोष भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
आदरणीय सुशील भाई ग़ज़ल की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिये आपका हृदय से आभार ।
आदरणीय रवि भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभार ।
आदरनीय गुरप्रीत भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।
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