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मैं अकेला हूँ प्रिये -

मैं अकेला हूँ प्रिये -

हर दृश्य में, हर श्राव्य में,

हर मूर्त में, हर काव्य में,

जो परे हर सुख से, मैं वो क्लान्त बेला हूँ प्रिये...

मैं अकेला हूँ प्रिये -

[१]   इक संग तेरे जीवन मधुर रसधार बन बहता गया,

   तेरे लिए हर क्लेश दुनिया का सहा, सहता गया,

जो कुछ सुना, जो कुछ कहा, अब शेष ना कुछ भी रहा -

बस धूप में यादों की परछाईं का मेला हूँ प्रिये...

मैं अकेला हूँ प्रिये -

[२]   था गगन विस्तृत, कि जब मन में उड़ानें थीं बहुत,

दूर, कोसों दूर इस दिल से थकानें थीं बहुत,

जाने मगर ये क्या हुआ, हर जोश मन का सो गया -

जो घुल रहा आँसू में, वो मिट्टी का ढेला हूँ प्रिये...

मैं अकेला हूँ प्रिये -

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Comment by डॉ. नमन दत्त on June 15, 2011 at 7:32am
बहुत धन्यवाद सतीश जी...आगे भी ऐसी कृपादृष्टी बनाए रखेंगे...पुनः आभार...
Comment by satish mapatpuri on June 14, 2011 at 11:10pm

मैं अकेला हूँ प्रिये -

हर दृश्य में, हर श्राव्य में,

हर मूर्त में, हर काव्य में,

जो परे हर सुख से, मैं वो क्लान्त बेला हूँ प्रिये...

मैं अकेला हूँ प्रिये -

खुबसूरत ख्याल............. अभिनव अभिव्यक्ति

Comment by डॉ. नमन दत्त on June 14, 2011 at 5:02pm
उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद और आभार वंदना जी....
Comment by डॉ. नमन दत्त on June 13, 2011 at 11:29am
रचना पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए गणेश जी आपका बहुत-बहुत धन्यवाद और आभार.....

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 13, 2011 at 9:27am

आदरणीय नमन दत्त साहिब, यह रचना बहुत ही उम्द्दा है कुछ पक्तिया अत्यंत ही खुबसूरत बन पड़ी है उसी में से एक है ......

 

जो कुछ सुना, जो कुछ कहा, अब शेष ना कुछ भी रहा

बस धूप में यादों की परछाईं का मेला हूँ प्रिये

 

इस खुबसूरत और भावनात्मक अभिव्यक्ति हेतु बधाई आपको |

कृपया ध्यान दे...

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