'कारसाज'
"जनाब, गर आप को ऐतराज न हो तो एक बात कहना चाहता हूँ।" खान साहब के केबिन से बाहर जाते ही उनके एडिटर ने अपना रुख मेरी ओर किया था।
"अनवर मियाँ, आप यहां वर्षों से काम कर रहे है और खान साहब की तरह मैं भी आपको बहुत मान देता हूँ। आप बेहिचक अपनी बात मुझसे कह सकते है।" मैं मुस्करा दिया।
"जनाब बात ही कुछ ऐसी है कि कहने में हिचक हो रही है।" अनवर मियां कुछ पशोपश में थे। "दरअसल अभी हाल ही में जो किस्से-कहानी के मद्देनजर हमारे पब्लिकेशन ने 'कम्पीटीशन' रखकर उसमे नए सीखने वालों को इनाम का लालच दिया है, वह मुझे अच्छा नही लगा।"
"मैं समझा नही मियाँ, आप कहना क्या चाहते है?"
"कुछ ख़ास नही जनाब, हमारे खान साहब तो खानदानी कारोबारी है और बाहर लाइन लगाकर खड़ी भीड़ अपने मुकाम की तलाश में है। मगर आप जैसा ज्ञान की देवी से नवाजा, नामी कहानीकार इस आयोजन से जुड़कर इसका हिस्सा बन रहा है। ये मैं नहीं समझ पा रहा।" अनवर मियां के चेहरे पर असमंजस के भाव बरकरार थे।
"मैं ये तो नही जानता कि खान साहब साहित्य-प्रेमी अधिक है या बिजनेसमैन। लेकिन इतना जानता हूँ अनवर मियाँ, जो लोग इस आयोजन के लिये लाइन लगाकर बाहर खड़े है वे जरूर माँ सरस्वती के उपासक है, भले ही अभी ये नई उम्र की पौध मन से माँ सरस्वती को आत्मसात न कर पाई हो।" मैं सहज ही गंभीर हो गया था।
"आप ठीक कह रहे है मगर गुस्ताखी माफ़ जनाब। मेरा सवाल तो आप के बारें में था।"
"बड़े मियाँ, छोड़िये हमारी बात। अब क्या जवाब दे आपको, बस यूँ समझिये असली 'कारसाज' (काम बनाने वाला) तो खान साहब है।" मैंने एक ठंडी सांस ली और अनवर मियाँ की ओर गहरी नजर डालते हुए उठ खड़ा हुआ। "दरअसल माँ सरस्वती अपनी विद्या तो किसी ख़ास को ही दान करती है लेकिन अपना 'नाम' बहुतों को दे देती है। और हमें भी शायद....।" मैंने बात अधुरी छोड़ दी थी लेकिन अनवर मियां का चेहरा बता रहा था कि उन्हें उनकी बात का जवाब मिल गया था।
विरेंदर 'वीर' मेहता
(मौलिक स्वरचित व् अप्रसारित)
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