रात अपनी जवानी पर थी,चाँद अपने शबाब की ऊँचाई पर।साँसों में असहास कायम था।झक शीतल रोशनी में रात सिहरती,शरमाती।चाँद खिलखिलाता,और खिलखिलाता। यह क्रम ज्यादा देर तक नहीं चला।अरे यह क्या!वक्त की निस्तब्धता भंग होती -सी लगी। कहीं से किसी अज्ञात पक्षी ने पंख फड़फड़ाये।शायद अकस्मात् नींद से जगा हो।कहीं नींद में ही सबेरा न हो जाये,इसलिए आकुल हो शायद। रात अपना काला दुपट्टा समेटने लगी।चाँद को यह नागवार लगा।उसकी चाहत अभी परवान चढ़ी ही कहाँ!सबेरा होने की शुरुआत इतनी जल्दी क्यूँ हो जाती है भला?बिलकुल सुख के क्षणों की तरह,सत्ता के मधुमय दिनों की तरह यह सब इतनी जल्दी क्यूँ हो जाता है,चाँद सोचने लगा। उसने रात का दामन न छोड़ने की ठान ली।रात अब ज्यादा लजाने लगी थी।उसका चेहरा सुर्ख हो चला।उसने चाँद के हाथों से अपना पल्लू झटकना चाहा,पर उसका रुआँसा चेहरा देख वह थोड़ा ठमक गयी,समझाने के अंदाज में बोली-
-अरे मेरे प्यारे चाँद!तू समझता क्यों नहीं?हर बार तेरी यही दशा क्यों हो जाती है?
-क्या करूँ?दिल बेकाबू हो जाता है।सुख का परित्याग कोई करता है भला?बताओ तो जरा।
-तू भी न। अरे भोले ,यह त्याग कहाँ हुआ?यह तो काल क्रम है।दिन के बाद रात,फिर रात के बाद दिन।यह तो हमारे मिलन की प्रतीक्षा है पगले!
-पर मेरा जी नही लगता ऐसी प्रतीक्षा में।
-सुनो,प्रतीक्षा तो बड़े-बड़े ऋषियों ने की।उन्होंने युगों-युगों तक तपस्या की,इच्छित फल हेतु प्रतीक्षा की।और तू एक दिन के लिए अपनी रात को अलविदा नहीं कह सकता?रात जायेगी,तभी तो उजाला आयेगा।कर्म और ज्ञान की ज्योति बिखरेगी।तू कब समझेगा यह सब?
-फिर मुझे कौन मान देगा?सब प्रकाश को पूजने लगेंगे।तेरा चाँद उस चकाचौंध में खो जायेगा,रानी।
-इसीलिए तो कहती हूँ।छुप जा कहीं,मेरे आने तक।देखता नहीं,सरकारी नौकरियों से लोग अवकाश ग्रहण करते हैं।थोड़ा अखरता है शुरू में,फिर सब ठीक हो जाता है।हाँ,राजनीति वगैरह में पहले अवकाश ग्रहण का प्रावधान नहीं किया गया था।वैसे भी रणनीति पहले लोक सेवा का सबब थी,अब स्व सेवा का पर्याय है।ढ़ेर सारे लोग इधर मुखातिब होने लगे हैं।या यूँ कहें तो कुनबा का कुनबा अब राजनीति में स्थापित होने लगा है।महत्वाकांक्षाएँ अँगड़ाई लेने लगी हैं।वरीयता,भ्रातृत्व,पितृत्व,ताऊ पन जैसे बेहद पुरातन और शास्त्रीय लफ्ज अब अपने भाव खोने लगे हैं।देखते ही देखते कोई विराट व्यक्तित्व अपने आभामंडल से भटक जाता है,या वंचित कर दिया जाता है।
-सो तो है,रजनी।
अबतक प्राची की गोद भरने लगी थी, रोशनी का अवतार होने लगा था।पंछी विरुदावली में व्यस्त थे।रात अपना आँचल समेटकर जा चुकी थी।चाँद रह गया था अकेला,निरुपाय,निस्तेज। अपनी सत्ता से च्युत वह आजतक सूर्य की गर्मी में झुलस रहा है।समय से न चेतना उसकी चेतना को लहूलुहान कर रहा है।सोचता है,मेरी रजनी भी न, खूब उतारा दिया करती है।कहती है , राजनीति में भी लोग बेदखल किये जाने लगे हैं अब।मैं कहता हूँ, आदमी फिर भी आदमी है।वह बुद्धिजीवी ऐसे ही नहीं कहा जाता।उसने किसी आभा मय व्यक्तित्व को बेदखल करने के कितने लजीज और अजीज नुस्खे ईजाद कर लिये हैं! मार्ग-दर्शक,संरक्षक जैसे कितने ही झन्नाटेदार पद सृजित किये हैं उसने।भला ऐसी तरकीब आदमी के सिवा और कौन भिड़ा सकता है,जहाँ चोट भी की जाये और सामने वाला आहत भी महसूस न करे।और एक हमारी दुनिया है जहाँ कभी चाँद चाँद होता है,तो कभी कोई पूछने वाला भी नहीं होता।बस झुलसते रहो अपनी विरह की आग में।और दिन की अग्नि कुछ ज्यादा ही जलाती है।
"मौलिक व अप्रकाशित"
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online