जल रहे चिराग हैं, जिंदा यहां तख़्त-ओ-ताज है
बह रही गोमती, रोशन यहां के घाट हैं
यह लखनऊ की धरती
यह लखनऊ की शाम है
तहजीब यहां अब्दो आब है,खिलते हर दिल में ख्वाब हैं
दुश्मन को भी कहते आप हैं,दोस्त भी अमें यार हैं
गंज की शाम है, बागों में भी बाग हैं
यह लखनऊ की धरती
लखनऊ की शाम है।
रूमी दरवाजा वो शान है, आज भी तहजीब उसकी आन है ।
इमामबाड़ा हिंदू मुस्लिम एकता की पहचान है
बेगम की कोठी में जलते चिरो चिराग,नक्खास पर सजती बाजार है,
बादरी की अपनी ही पहचान है ,
ये अवध की धरती है,
ये अवध की शाम है।
आरजू आराइश है, आलिम यहां आवाज़ है,
अहज़ान में बैठे जब, देख आशुफ्ता जहान को
आदिल हो बैठा दिल, दोस्त ईमान पर ,
मिलती यहां हर सीख है,अंजुमन में होती यहां की शाम है,
उजली अर्जमंद धरती, ये शहरों मे न शहर आम है
ये यहां की शाम है।
ये अवध की शाम है।
पीयूष उमराव(पीय)
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आद0 पीयूष जी सादर अभिवादन। बेहतरीन रचना पर दिल खोल कर बधाई। कुछ कठिन उर्दू शब्दो के अर्थ भी लिख दें,तो रचना समझने में और आसानी हो। इस उत्तम प्रस्तुति पर कोटिश बधाइयाँ। सादर
जनाब पीयूष जी आदाब,अच्छी रचना हुई,बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय पीयूष जी आदाब,
शान-ए-अवध का बहुत ही सुंदर चित्रण प्रस्तुत किया आपने । आज पूरे मुल्क में हवा ही कुछ ऐसी चल रही है जो हमारी तहजीब को ख़त्म करने पर आमादा है ।इस सुंदर रचना पर हार्दिक बधाई.स्वीकार करें ।
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