क्यों अंजान रखा 'उन काले अक्षरों से'
तेरे लिए क्या बेटा, क्या बेटी,
तेरी ममता तो दोनों के लिए समान थी,
परिवार की गाडी चलाने वाली तू,
फिर, कैसे भेदभाव कर गई तू,
क्यों शाला की ओर बढते कदमों को रोका,
क्यों उन आडे टेढे मेढे अक्षरों से अंजान रखा,
कहीं पडा, किसी किताब का पन्ना मिल जाता,
तो, उसे उलट पुलट करती, एक पल निहारती,
हुलक होती, पढते लिखते हैं कैसे,
जिज्ञासा होती इन शब्दों को उकेरने की,
या फिर जीवन भर 'काला अक्षर, भैंस बराबर रहेगा, '
मेरी ऑखे पूछती, क्या दोष था मेरा,
क्या, सिर्फ इतना, कि मैं एक लडकी हूँ,
कैसे तू भूल गई उन शब्दों को,
'एक लडकी की शिक्षा, पूरे परिवार की शिक्षा',
एक सपना बुना अक्षरों की दुनियां में खोने का,
बस, माँ, बुने सपनों को आकार दे,अक्षरों की उडान भरूगी,
ठान ली, रोढे बने रिवाजों में अपना रास्ता खुद बनाऊँगी,
रचना मौलिक और अप्रकाशित है
बबीता गुप्ता
Comment
आदरणीय सर जी, त्रुटि की ओर धयानाकर्षित ककरने के लिए सधन्यवाद।
मोहतरमा बबीता गुप्त जी आदाब,रचना के भाव अच्छे हैं,लेकिन आपने रचना के साथ उसकी विधा नहीं लिखी,आइन्दा रचना के साथ उसकी विधा ज़रूर लिख दिया करें,ये इस मंच का नियम है,इससे रचना के बारे में कुछ कहने में आसानी होती है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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