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टेसू की टीस या पलाश की पीर

               सुर्ख अंगारे से चटक सिंदूरी रंग का होते हुए भी मेरे मन में एक टीस हैं.पर्ण विहीन ढूढ़ वृक्षों पर मखमली फूल खिले स्वर्णिम आभा से, मैं इठलाया,पर न मुझ पर भौरे मंडराये और न तितली.आकर्षक होने पर भी न गुलाब से खिलकर उपवन को शोभायमान किया.मुझे न तो गुलदस्ते में सजाया गया और न ही माला में गूँथकर देवहार बनाया गया.हरित विहीन वन में मेरे बासंती फूल जंगल के सूनेपन को बांटता.प्रज्ज्वलित पुष्प धरा को ,नभ को रंगीन बनाते.धरा पर बिछे सूखे,पीले पत्तों पर मेरी मखमली,चटकती कलिया अपनी भावनाओं को उड़ेल देती हैं.जबकि मैं झुलसती,चिलचिलाती धुप और सूखे खडखडाते पत्तों के बीच छाँव का एहसास करता.गंधहीन ही सही पर फाग के रंग में घुल पिसकर सबके गालों पर चढ़ जाता.जंगल की आग कहलाने वाला मैं ,औषधि के रूप में दूसरे के दर्द बांटता पर मई अपना ही दर्द नही बाँट पाटा.बस,खिलकर सूखे और गिरकर धूल-धूसरित हो गये.स्नेह की बरसात न सही,फिर भी अन्याय की इस तपिश से बचकर फिर किसी अनाम पगदंडी पर खिल जायेंगे.निर्गंध होने पर भी मेरी उपवन में ख़ास हैसियत होने पर भी,मेरी दास्ताँ मेरी तरह ही 'तीन ढाक के की तीन दिनों की बात की तरह ही रही'.खैर.......

रचना मौलिक और अप्रकाशित हैं.

   

    बबीता गुप्ता 

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Comment

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Comment by babitagupta on May 14, 2018 at 6:02pm

आदरणीय सर जी, नमस्कार, ये आत्म गाथा है, 

Comment by Mohammed Arif on April 23, 2018 at 6:00pm

आदरणीया बबीता गुप्ता जी आदाब,

                                सबसे पहले तो ओबीओ मंच पर आपका हार्दिक स्वागत है ।

                                                  आपकी यह रचना किस विधा में आती है मुझे समझ में नहीं आ रहा है ।मंच का नियम है कि जो भी रचना होती उसको दर्शाया जाता है जैसे अगर लघुकथा है तो लघुकथा , कविता है तो कविता, संस्मरण है तो संस्मरण , ग़ज़ल है तो ग़ज़ल आदि । आपकी यह रचना किस विधा की है और आप इस रचना के माध्यम से क्या कहना चाहती है स्पष्ट नहीं है । बहरहाल इस प्रयास हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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