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जो आँखों से दिखती नहीं है सभी को
मैं क्यों ढूँढ़ता हूँ उसी रौशनी को
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जो समझे मेरे दिल की सब अन-कही को
मैं क्या नाम दूँ ऐसे इक अजनबी को
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सुधारेगा कौन आपके बिन मुझे अब
मुझे डाँटने का था हक़ आप ही को
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भले रोज़मर्रा में हों मुश्किलें ख़ूब
बहुत प्यार करता हूँ मैं ज़िंदगी को
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कसौटी पे परखे जो किरदार अपना
भला इतनी फ़ुर्सत कहाँ है किसी को
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तुम्हें नूरे-जाँ भी दिखेगा इसी में
कभी ग़ौर से देखना तीरगी को
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सराबों में कब तक भटकता रहेगा
तू दे अब तवज्जोह भी ख़ुद-आगही को
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'दिनेश' अपने बारे में ही सोचता है
ये क्या हो गया है भले आदमी को
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
वाह वाह वाह . आदरनीय दिनेश भाई,,
क्या खूब ग़ज़ल हुई है ,,,
जो समझे मेरे दिल की //हर// अन-कही को
एक सुझाव मात्र है..
ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई
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