किराये के रिश्ते
रात भर नींद नहीं आई, और सुबह होते ही वह पार्क में आ गया। कल शाम को आए फोन से पैदा हुई समस्या अभी सुलझ नहीं रही थी । चाहे कोई हल नज़र नहीं आ रहा, मगर इस समस्या को हल किये बिना छोड़ा भी नहीं जा सकता। आख़र उनका है भी कौन है,जो सात समंदर पार हैं, मगर इस बार महिंदरो उसकी बात से सहमत नहीं हो रही थी । उसका कहना कि “क्या करेंगे वहाँ जा कर हम, आप तो फिर भी यहाँ वहाँ घूम आते हो,मगर मैं ........",कह कर महिंदरो चुप हो गई।
"मैं तो वहाँ अकेली अंदर बैठी कैसे रह सकती हूँ, न कोई बात करने को न कोई मिलने आये, आदमी को खाना ही तो नहीं खाना खुरली में बंधे जानवर की तरह, यहाँ तो फिर भी .........।
हमें उनके लिए नहीं अपने लिए भी जीना है, इस उम्र में ।"
धीरे धीरे चारों तरफ़ रौशनी फैल गई, तब उसको महिंदरो ने आवाज़ लगाई सुनना, “टिकटें भेज दी हैं अब तो, तब वह महिंदरो के पास आ बैठ गया। दोनों इक दूसरे को और फिर जमीन की तरफ देखने लगे ।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
हार्दिक बधाई आदरणीय मोहन जी। बेहतरीन लघुकथा।
आदरणीय मोहन जी, नमस्कार। विभिन्न संस्कृतियों में रह रहे परिवार की पीढ़ियों के बीच का अंतर झळकाती बहुत ही बढ़िया लघुकथा। बधाई स्वीकार करें।
बुजुर्गों की बेटों के घर बेमन से रहने की मनोस्थिति बयाँ की हैं,आधे अधूरे वाक्यों में सब कुछ वयां कर देती हैं,बहुत ही ह्रदय स्पर्शीय लघुकथा.प्रस्तुत रचना पर बधाई स्वीकार कीजिए आ.सर जी.
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