दहक रहा हर कोना कोना , सूरज बना आग का गोला | |
मुश्किल हुआ निकलना घर से , लू ने आकर धावा बोला | |
तर बदन होता पसीने से , बिजली बिना तरसता टोला | |
बाहर कोई कैसे जाये , विकट तपन ने जबड़ा खोला | |
पशु पक्षी ब्याकुल गरमी से , जान बचाते हैं छाया में | |
चले राही लाचार होकर , आग लगी है जब काया में | |
तेज तपन लाये लाचारी , पवन थमा जलती माया में | |
दहक बढ़ाया है बीमारी , गिरे पड़े लू की साया में | |
गरमी घोर तांडव मचायी , कोई इससे बचना चाहे | |
हर तरफ बेचैनी सताये , सूने सड़क और चौराहे | |
झुलस रहें हैं खेत बाग वन , तेज अगन से भरते आहें | |
चेहरे को जला देती हैं , लू की गर्म थपेड़ी बाहें | |
हर मौसम है प्यारा लेकिन , गरमी तो दिन रात सताये | |
जगह ढूढता कोई शीतल , बैठ कर लेते कहीं छाये | |
जल्दी से अब बारिश आये , हर कोई बस यहीं मनाये | |
वर्मा कब ये गरमी जाये , जब ये तपन दूर हो जाये | |
श्याम नारायण वर्मा |
(मौलिक व अप्रकाशित) |
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रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से धन्यवाद .सादर |
आदरणीय श्यामनारायण जी प्रचण्ड ग्रीष्म का यथार्थचित्रण मनमोहक है दिली बधाई स्वीकार करें
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