कहने को तो बहुत कुछ है हमारे पास भी
ये बात अलग है कि कहते बनता नहीं
ऐसा भी नहीं कि कहना जानते नहीं
शब्द भंडार भी है अथाह अपार
वाक्य विन्यास का सारा सार
फिर भी ऐसा कुछ है निःसन्देह
रोक लेता है जुबान को
लफ्ज़-ए - ब्यान को
ठीक वैसे ही जैसे जानकी
सतीत्व- प्रमाणिकता बनाम
विश्वास भरोसे संवारने हेतु
अग्नि -परीक्षा के लिए तत्पर
क्या क्या नहीं बोल सकती थी
पूरा मुख खोल सकती थी
पर नहीं बोल पायी
अविश्वास- संदेह -दाह -जलन ले
अविचलित अंगदी कदम बढ़ाया
अग्नि में प्रवेश पाया
और निःस्पर्श
अग्नि से बाहर निकल आयी
अग्नि ने नहीं जलाया
प्रमाणिकता प्रमाण- पत्र थमाया
और बुझ गयी
अग्नि अग्नि को कैसे झुलसाती
आग थी आग को कैसे जलाती
जानकी ने इतना भर किया कि
बस पलकें नहीं उठाई
बस पलकें नहीं गिराई
परीक्षा -परिणाम - प्रतिक्रिया पर
रत्ती भर भी रूचि नहीं दिखाई
जीत की कोई खुशी न मनाई
प्रमाणों के बूते भरोसे कब उगते हैं
छलनी जिगर जिस्मों को चुभते हैं
परिणाम से अंतर भी क्या आया
किस का कैसा भरोसा बन पाया
वह निरपेक्ष हुई वितृष्ण हो गयी
महाभारत था भीतर कृष्ण हो गयी
एक ओर निज सेना दूजी ओर स्वंय
तो फर्क पड़ता भी क्या है
कौन अब जीते कौन अब हारे
स्वंय आप मरे या अपनों को मारे
कुछ भी नहीं बोली जानकी
क्या मायने होते उन लफ़्ज़ों के
जो बोल भी दिए जाते
अच्छा ही हुआ जो नहीं बोली जानकी
उस दिन भी नहीं बोली
जब अग्नि परीक्षा-परिणाम की वैधता को मुखाग्नि दे
अर्धरात्री अथवा पूर्ण -दिवस में
बनवास वीभत्सता के भुक्तभोगी
राजसिंहासनासीन पति द्वारा
निर्वासित कर दिया गया चुपचाप
नितांत अकेली को ,
भेज दिया गया फिर से बनवास
बियाबान में ,अनदेखे अंजान में
गर्भित जिम्मेवारी
फिर से कुछ नहीं बोली महतारी
चली गई नि:शब्द चुपचाप
कुछ भी नहीं बोली
क्या मायने होते उन लफ़्ज़ों के
जो बोल भी दिए जाते
निःशब्द रोती गयी
धरा - पुत्री बोती गयी
असहनीय बेज़ुबानी धैर्य की फसलें
नितांत अवांछित अविवेकी रस्में
छलक छलक जाती रही झोलियाँ
अर्थ खोती जाती रही समर्थ बोलियाँ
चलता चला गया अनवरत सिलसिला
स्थापित हुई बस दीवारें छतें
विस्थापित हुई तो केवल नींव
कुछ भी नहीं बोली जानकी कभी
कुछ भी नहीं बोलती जानकी कभी
क्या मायने होते उन लफ़्ज़ों के
जो बोल भी दिए जाऐं
ये बात नहीं है कि कहते बनता नहीं कभी
कहने को तो बहुत कुछ है हमारे पास भी.......
"मौलिक व अप्रकाशित"
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खुब सुन्दर
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