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जुल्म की ये इंतेहा भी कब तलक।

ज़िंदगी के इम्तेहा भी कब तलक॥

आज़ या कल बिखर ही जाऊंगा।

वक़्त होगा मेहरबाँ भी कब तलक॥

ऐब ही जब ऐब तुझमें हैं भरे मैं ।

तुझमें ढूँडू ख़ूबियाँ भी कब तलक॥

नींद से बोझिल ये आंखे हो रही हैं।

मैं सुनाऊँ दास्तां भी कब तलक॥

मुंतज़िर हूँ एक दिन मिट जाएगा।

फ़ासला ये दरम्या भी कब तलक।।

हार कर बैठे हुए बंदे बता तू ।

और चलेगी मर्जियाँ भी कब तलक।।

सोच कर तू ही बता मुझको ‘प्रदीप’।

तुझको दूँ मैं अर्ज़ियाँ भी कब तलक ॥

 

-प्रदीप भट्ट -

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by Samar kabeer on October 23, 2018 at 11:15pm

जनाब प्रदीप भट्ट साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,लेकिन ग़ज़ल बह्र और क़वाफ़ी के हिसाब से समय चाहती है,बधाई स्वीकार करें ।

'

जुल्म की ये इंतेहा भी कब तलक।

ज़िंदगी के इम्तेह भी कब तलक॥

मतले के ऊला मिसरे में क़ाफ़िया दोष है और सानी मिसरे में 'इम्तेहा' शब्द आपने ग़लत लिखा है,इस मतले को यूँ कर सकते हैं:-

'ज़ुल्म की ये दास्ताँ भी कब तलक

ज़िन्दगी के इम्तिहाँ भी कब तलक'

'आज़ या कल बिखर ही जाऊंगा'

ये मिसरा बह्र में नहीं है,इसे यूँ कर लें:-

आज या कल मैं बिखर ही जाऊंगा'

'ऐब ही जब ऐब तुझमें हैं भरे मैं'

ये मिसरा भी बह्र में नहीं,इसे यूँ कर लें:-

'ऐब ही जब ऐब तुझमें हैं भरे'

' नींद से बोझिल ये आंखे हो रही हैं'

ये मिसरा भी बह्र में नहीं',इसे यूँ कर लें:-

नींद से बोझिल ये आंखे हो रहीं'

' फ़ासला ये दरम्य भी कब तलक'

उस मिसरे में ' दरम्या' शब्द ग़लत लिखा है,इस शब्द को यूँ लिखें "दरमियाँ" ।

' हार कर बैठे हुए बंदे बता तू' 

ये मिसरा भी बह्र में नहीं,यूँ कर लें:-

' हार कर बैठे हुए बंदे बता'

इस ग़ज़ल के अरकान हैं:-2122 2122 212

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