For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

प्रदीप देवीशरण भट्ट's Blog (63)

बिन तेरे

तेरे बिन है घर ये सूना
मेरे मन का कोना सूना
समझो ना ये चार दिनो का
प्यार हमारा काफ़ी जूना*!

घर क़ी देहरी कैसे ये लांघूँ
मैं छलना ना ख़ुद को जानूं
लोगों का तो काम है कहना
मैं तुमको बस अपना मानूं! !

मुझे आस तुम्हारे मिलने क़ी है
और साथ में चलने क़ी है
तब ये सूनापन ना अखरे
बात नज़रिया बदलने क़ी है! !


* पुराना (मराठी शब्द)
- प्रदीप देवीशरण भट्ट - 28:01:2020

मौलिक व अप्रकाशित

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 28, 2020 at 3:30pm — 1 Comment

पटरियों से सीख

इक तेरी है इक मेरी है

ढल के आग में ये बनी हैं

जैसे तुम से तुम बने हो

वैसे मैं से मैं भी बनीं हूँ

 

आ चल बैठ यहीं हम देखें

एक दूजे से कुछ हम सीखें

अलग है माना फिर भी संग संग

मिलजुल कर के रहना सीखें

 

शहरों क़ी फिर चकाचौंध हो

जंगल में या कहीं ठौर हो

साथ ना छोडे एक दूजे का

ताप हो कितना या के शीत हो

कहीं हैं सीधी कहीं ये टेढी

दिन हो या हो रात अंधेरी

कर्म पथ से कभी ना डिगती

ना…

Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 27, 2020 at 1:00pm — 1 Comment

सहर हो जाएगा

जिस्म तो नश्वर है, ये मिट जाएगा

प्रेम पर अपना अमर हो जाएगा

 

सोच मत खोया क्या तूने है यहाँ

एक लम्हा भी दहर हो जाएगा

 

माना ये छोटा है पर धीरज तो धर

बीज एक दिन ये शजर हो जाएगा

 

भाग्य में जितना लिखा था मिल गया

अपना इसमें भी गुजर हो जाएगा

 

जीस्त बेफिक्री में काटी है मगर

मौत का उस पर असर हो जाएगा

 

तिरगी से डर के क्यूँ रहना भला

आज या फ़िर कल सहर हो जाएगा

 

सीख कुछ मेरे…

Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 16, 2020 at 2:30pm — 1 Comment

हम पंछी भारत के

जो हैं भूखे यहाँ ठहर जाएँ

शेष सब संग संग उड़ जाएँ

कमी नहीं यहाँ पे दानों क़ी

हो जो बरसात मेरे घर आएँ

पेट भरता है चंद दानों से

फ़िर क्यूँ सहरा में घूमने जाएँ

लोग भारत के बहुत अच्छे हैं

ख़ुद से पहिले हमें हैं खिलवाएँ

मार कंकर भगाते हैं बच्चे

फिर वही प्यार से हैं बुलावाएँ

प्रचंड गर्मी में जब तडपते हैं

पानी हमको यहीं हैं पिलवाएँ

खेत खलिहान सौंधी सी ख़ुशबू

छोड़ मिट्टी क़ो 'दीप' क्यूँ…

Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 9, 2020 at 5:30pm — 3 Comments

अहसास

क्या तुम्हें याद है प्रिय

जब मैं औऱ तुम बस यूँ ही

नदी के किनारे चलते चलते

एक छोर से दूसरे छोर तलक

एक दूजे का हाथो में लेकर हाथ

टहलते रहते थे नंगे पाँव!

 

तुम जल्दी ही थक जाती थीं

औऱ बैठ जाया करती थीं

बेंच पर दोनों हाथ टिकाकर

और टिका देती थीं सर बेंच पर

औऱ मैं यूँ ही टहलता रहता था

सिगरेट के कशों  के साथ !

 

हम दोनों घंटो निहारते रहते थे

एक दूसरे के चेहरे क़ो अपलक

कभी विस्तृत नीले…

Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 8, 2020 at 12:00pm — 6 Comments

अमर प्रेम

इससे पहले के तुम दर्पण निहारों

मैं इन केशों में इक वेणी लगा दूँ

 

लो रख दी बाँसुरी धरती पे मैंने

तुम्हें गाकर के मैं लोरी सुला दूँ

 

समीरण रुक गई है बहते बहते

कहो तो शाख पेडो की हिला दूँ

 

पवन से वेग की इच्छा अगर है

कहो तो अंक में लेकर झूला दूँ

 

सुगंधित हैं सुमन उपवन के सगरे

बताओ कौन सा मैं पुष्प ला दूँ

 

घटा आकाश में छाने को व्याकुल

कहो तो नयनों में तुमको बिठा…

Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 7, 2020 at 1:30pm — 6 Comments

"तुम्हारे लिए"

तुम यूँ ही बीच राह में

रोज़ तरूवर क़ी छाँव में

मुझे यूँ ही रोक लेते हो 

और मैं भी रुक जाती हूँ

क्यों कि मैं भी रहती हूँ अधीर

तुमसे मिलकर बातें करने को!

 

तुम्हारा यूँ एकटक निहारना

मेरे दिल को भाता है बहोत*

मैं भी देखने लगती हूँ तुम्हें

सीधी कभी तिरछी नज़रों से

तुम मुस्कुरा देते हो शरारत से

मैं शर्माकर कुरेदती हूँ ज़मीन  

 

पर ये सब भी कब तलक

जब ये कुहासा नहीं होगा

बढ़…

Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 3, 2020 at 12:43pm — 2 Comments

मनुष्य और पयोनिधि

आओ और निकट से देखो

हिलोरें लेते इस पारावार को

हमारा जीवन भी ऐसा ही है

नीर जैसा स्वच्छ और निर्मल

 

जब पयोधि क़ी लहरें छूती हैं

रेत क़ी फ़ैली हुई कगार को

तब वह समेट लेती सब कुछ

और ले जाती है पयोनिधी में

 

हम मनुष्य भी तो ऐसे ही हैं

जब हम प्रेम में होते हैं तब

ढूंढते रहते हैं बस एक साहिल

ताकि समेट सकें स्वयं में सब कुछ

 

किंतु उदधि और मनुज क़ा प्रेम

उदर में ज्य़ादा काल नहीं…

Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 2, 2020 at 12:30pm — 6 Comments

उन्नीस-बीस (2019-2020) नूतन वर्ष

छोटी बातों से तू  इतना, विचलित क्यूँ कर होता है

जीवन धार नदी की, इसमें उन्नीस बीस तो होता है

दुनियाँ का दस्तूर है, ज्यादा  रोते को रुलवाने का

कितना समझाया तुझको तू, फिर भी नयन भिगोता है

जाने वाले साल को सारे, दुख अपने तू अर्पण कर दे                                                                                                              तेरे भाग्य में फिर वो कैसे, बीज खुशी के बोता है

अस्त हुआ उन्नीस का भानु, बीस का दिनकर…

Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 1, 2020 at 11:00am — 10 Comments

प्रदिप्ति

ज़िंदगी में रह गया है अपनी तो बस अब यही

प्रदीप्ति में तुम रहो रहोगे,तिरगी में हम सही

 

किसको किससे प्यार कितना, क्या करोगे जानकर

उसका मुझसे कुछ है ज्यादा, औऱ मेरा कम सही

 

आ चलें मंदिर में,औऱ सौगंध खा कर ये कहें

साथ गर टूटेगा अगर तो, हम नहीं या तुम नहीं

 

पी रहे हो रात दिन, होकर मगन क्या सोचकर

बादा है जान लो तुम,आब-ए ये जमजम…

Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on December 20, 2019 at 12:00pm — 1 Comment

मोहे पिया मिलन की आस-

झूम के बरख़ा बरसी है ऐसे

जैसे दिन आया हो कोई ख़ास

मेरा तन भी भीगा मन भी भीगा

जगी अब पिया मिलन क़ी आस

 

पवन वेग से जल क़ी बूंदे कुछ

पूरब से पश्चिम तक हैं जाती

और पिया के सन्देशों को मेरे

अन्तर्मन की तह तक पहुँचाती

 

इससे पहले रुक जाए बरख़ा

तुम जल्दी घर आ जाओ ना

तप्त ह्रदय की ज्वाला की तुम

अपने नेह से प्यास बुझाओ ना

 

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

- प्रदीप…

Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on December 19, 2019 at 4:41pm — 2 Comments

नक़्श-ए-पा

मुझको पता नहीं है, मैं कहाँ पे जा रही हूँ

तेरे नक़्श-ए-पा के पीछे,पीछे मैं आ रही हूँ

उल्फत का रोग है ये, कोई दवा ना इसकी

मैं चारागर को फिर भी,दुःखड़ा सुना रही हूँ

सुन के भी अनसुनी क्यूँ,करते हो तुम सदाएँ

फिर भी मैं देख तुमको यूँ मुस्कुरा रही हूँ

बेचैनियों का मुझ पर, आलम है ऐसा छाया

क्यो खो दिया है जिसको, पा कर ना पा रही हूँ

मुझे भूलना भी इतना ,आसाँ तो नहीं होगा

दिन रात होगें भारी, तुमको बता रही…

Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on December 6, 2019 at 11:30am — 1 Comment

प्रकृति मेरी मित्र

प्रकृति हम सबकी माता है

सोच, समझ,सुन मेरे लाल

कभी अनादर इसका मत करना

वरना बन जाएगी काल

 

गिरना उठना और चल देना

तू स्वंय को रखना सदा संभाल

इतना भी आसाँ ना समझो

बनना सबके लिए मिसाल

 

सत्य व्रत का पालन करना

कभी किसी ना तू डरना

विपदाओं को मित्र बनाकर

बस थामे रहना ‘दीपमशाल

                                                              

मौलिक…

Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on December 3, 2019 at 12:30pm — 2 Comments

उर उमंग से भर गया

उर उमंग से भर गया

मैं छम छम नाचूँ आज

ख़बर सखी ने दी मुझे

मेरे पिया खड़े हैं द्वार

 

मन प्रसन्न इस बात से

नित गाए ख़ुशी के गीत

मिलने क़ी बेताबी उर में

प्रतिदिन औऱ बढ़ाए प्रीत

 

द्वार तक रहे सुबह से नयना

औऱ छत पे कागा का शोर

स्वाती क़ी बूँदों क़ी प्रतीक्षा

करता रहता है जैसे चकोर

 

     

 

  -प्रदीप देवीशरण भट्ट -26.11.2019, हैदराबाद(9867678909)

मौलिक व अप्रकाशित

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on November 28, 2019 at 6:00pm — 3 Comments

यादें

अब सिर्फ़ तुम्हारी यादें ही तो हैं

जिन्हें संजोकर रक्खा हुअ है मैंने।

अपनी धुँधली होती हुई स्मृतियों में,

इन गुलाब के फूलों क़ी पंखुड़ियों में॥

 

मैं अभी तक भी कुछ नहीं भूला हूँ,

लैंपपोस्ट क़ी वो मद्दिम रौशनी में।

मेरे कांधे तुम्हारा धीरे से सर रखना,

औऱ फिर घंटो तलक अपलक निहारना॥

 

वो आकाश में बिजली का वो कौंधना,

तुम्हारा घबराकर मुझसे लिपट जाना।

मुझे अहसास कराता था सदियों का,

उन पलों का कुछ देर यूँ ही…

Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on November 27, 2019 at 6:30pm — 4 Comments

मन है कि मानता ही नहीँ ....

काश मैं भी उड़ सकती

खुले विस्तृत गगन में

बादलों को चीरते हुए 

और छू सकती आकाश

                                                                   

पर ये संभव ही कहाँ है …

Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on November 26, 2019 at 1:00pm — 14 Comments

प्रतीक्षा

मैंने ढेरों पत्र लिखे तुमको

उत्तर जिनका अपेक्षित है

तुम व्यस्त हो गये हो शायद

या पता पता तुम्हारा है बदला

लिखते ऊँगली के पोर दुखे

मन करता लेकिन और लिखे

इसलिए डायरी लिख डाली…

Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 25, 2019 at 12:30pm — 2 Comments

शमा और मैं

शमा जली, उठा धुँआ 

तुम वहाँ औऱ मैं यहाँ 

सोचती हूँ के क्या लिखूं 

जिस्म यहाँ औऱ दिल वहाँ

पकड़ी क़लम ने उंगलियां 

टो सुझा नहीं के क्या लिखें 

तेरी अधूरी दास्तां या फ़िर …

Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 23, 2019 at 6:30pm — 1 Comment

ज़िंदगी तू क्यूँ उदास है-

जिंदगी ये तो बता, तू इतनी क्यूँ उदास है

मुझसे है नाराज़ या फिर,औऱ  कोई बात है

मैंने तो तुझसे कभी कुछ खास मांगा भी नहीं

ले रही फिर बारहा तू लंबी क्यूं उच्छवास है

जो तेरी ख़्वाहिश थी शायद वो मिला तुझको नहीं

फ़िक्र ना कर तेरे…

Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 9, 2019 at 11:00am — 2 Comments

रोटियाँ

पेट हो खाली तो फिर कैसे खेले गोटियां
अब मयस्सर हैं बस ख्व़ाब में ही रोटियाँ
.
तुम्हें मुबारक हो शाहों की दावतें हमको
मिल जाएँ खाने को दो चार सूखी रोटियाँ
.
माल…
Continue

Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 6, 2019 at 12:30pm — 1 Comment

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"शुक्रिया आदरणीय। कसावट हमेशा आवश्यक नहीं। अनावश्यक अथवा दोहराए गए शब्द या भाव या वाक्य या वाक्यांश…"
7 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"हार्दिक धन्यवाद आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी।"
7 hours ago
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"परिवार के विघटन  उसके कारणों और परिणामों पर आपकी कलम अच्छी चली है आदरणीया रक्षित सिंह जी…"
12 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"आ. प्रतिभा बहन, सादर अभिवादन।सुंदर और समसामयिक लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।"
12 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"आदाब। प्रदत्त विषय को एक दिलचस्प आयाम देते हुए इस उम्दा कथानक और रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया…"
13 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"आदरणीय शहज़ाद उस्मानी जी, आपकी टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। शीर्षक लिखना भूल गया जिसके लिए…"
14 hours ago
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"समय _____ "बिना हाथ पाँव धोये अन्दर मत आना। पानी साबुन सब रखा है बाहर और फिर नहा…"
15 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"हार्दिक स्वागत मुहतरम जनाब दयाराम मेठानी साहिब। विषयांतर्गत बढ़िया उम्दा और भावपूर्ण प्रेरक रचना।…"
19 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
" जय/पराजय कालेज के वार्षिकोत्सव के अवसर पर अनेक खेलकूद प्रतियोगिताओं एवं साहित्यिक…"
20 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"हाइमन कमीशन (लघुकथा) : रात का समय था। हर रोज़ की तरह प्रतिज्ञा अपने कमरे की एक दीवार के…"
20 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"आदाब। हार्दिक स्वागत आदरणीय विभारानी श्रीवास्तव जी। विषयांतर्गत बढ़िया समसामयिक रचना।"
21 hours ago
vibha rani shrivastava replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
""ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123विषय : जय/पराजय आषाढ़ का एक दिन “बुधौल लाने के…"
yesterday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service