तेरे बिन है घर ये सूना
मेरे मन का कोना सूना
समझो ना ये चार दिनो का
प्यार हमारा काफ़ी जूना*!
घर क़ी देहरी कैसे ये लांघूँ
मैं छलना ना ख़ुद को जानूं
लोगों का तो काम है कहना
मैं तुमको बस अपना मानूं! !
मुझे आस तुम्हारे मिलने क़ी है
और साथ में चलने क़ी है
तब ये सूनापन ना अखरे
बात नज़रिया बदलने क़ी है! !
* पुराना (मराठी शब्द)
- प्रदीप देवीशरण भट्ट - 28:01:2020
मौलिक व अप्रकाशित
Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 28, 2020 at 3:30pm — 1 Comment
इक तेरी है इक मेरी है
ढल के आग में ये बनी हैं
जैसे तुम से तुम बने हो
वैसे मैं से मैं भी बनीं हूँ
आ चल बैठ यहीं हम देखें
एक दूजे से कुछ हम सीखें
अलग है माना फिर भी संग संग
मिलजुल कर के रहना सीखें
शहरों क़ी फिर चकाचौंध हो
जंगल में या कहीं ठौर हो
साथ ना छोडे एक दूजे का
ताप हो कितना या के शीत हो
कहीं हैं सीधी कहीं ये टेढी
दिन हो या हो रात अंधेरी
कर्म पथ से कभी ना डिगती
ना…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 27, 2020 at 1:00pm — 1 Comment
जिस्म तो नश्वर है, ये मिट जाएगा
प्रेम पर अपना अमर हो जाएगा
सोच मत खोया क्या तूने है यहाँ
एक लम्हा भी दहर हो जाएगा
माना ये छोटा है पर धीरज तो धर
बीज एक दिन ये शजर हो जाएगा
भाग्य में जितना लिखा था मिल गया
अपना इसमें भी गुजर हो जाएगा
जीस्त बेफिक्री में काटी है मगर
मौत का उस पर असर हो जाएगा
तिरगी से डर के क्यूँ रहना भला
आज या फ़िर कल सहर हो जाएगा
सीख कुछ मेरे…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 16, 2020 at 2:30pm — 1 Comment
जो हैं भूखे यहाँ ठहर जाएँ
शेष सब संग संग उड़ जाएँ
कमी नहीं यहाँ पे दानों क़ी
हो जो बरसात मेरे घर आएँ
पेट भरता है चंद दानों से
फ़िर क्यूँ सहरा में घूमने जाएँ
लोग भारत के बहुत अच्छे हैं
ख़ुद से पहिले हमें हैं खिलवाएँ
मार कंकर भगाते हैं बच्चे
फिर वही प्यार से हैं बुलावाएँ
प्रचंड गर्मी में जब तडपते हैं
पानी हमको यहीं हैं पिलवाएँ
खेत खलिहान सौंधी सी ख़ुशबू
छोड़ मिट्टी क़ो 'दीप' क्यूँ…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 9, 2020 at 5:30pm — 3 Comments
क्या तुम्हें याद है प्रिय
जब मैं औऱ तुम बस यूँ ही
नदी के किनारे चलते चलते
एक छोर से दूसरे छोर तलक
एक दूजे का हाथो में लेकर हाथ
टहलते रहते थे नंगे पाँव!
तुम जल्दी ही थक जाती थीं
औऱ बैठ जाया करती थीं
बेंच पर दोनों हाथ टिकाकर
और टिका देती थीं सर बेंच पर
औऱ मैं यूँ ही टहलता रहता था
सिगरेट के कशों के साथ !
हम दोनों घंटो निहारते रहते थे
एक दूसरे के चेहरे क़ो अपलक
कभी विस्तृत नीले…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 8, 2020 at 12:00pm — 6 Comments
इससे पहले के तुम दर्पण निहारों
मैं इन केशों में इक वेणी लगा दूँ
लो रख दी बाँसुरी धरती पे मैंने
तुम्हें गाकर के मैं लोरी सुला दूँ
समीरण रुक गई है बहते बहते
कहो तो शाख पेडो की हिला दूँ
पवन से वेग की इच्छा अगर है
कहो तो अंक में लेकर झूला दूँ
सुगंधित हैं सुमन उपवन के सगरे
बताओ कौन सा मैं पुष्प ला दूँ
घटा आकाश में छाने को व्याकुल
कहो तो नयनों में तुमको बिठा…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 7, 2020 at 1:30pm — 6 Comments
तुम यूँ ही बीच राह में
रोज़ तरूवर क़ी छाँव में
मुझे यूँ ही रोक लेते हो
और मैं भी रुक जाती हूँ
क्यों कि मैं भी रहती हूँ अधीर
तुमसे मिलकर बातें करने को!
तुम्हारा यूँ एकटक निहारना
मेरे दिल को भाता है बहोत*
मैं भी देखने लगती हूँ तुम्हें
सीधी कभी तिरछी नज़रों से
तुम मुस्कुरा देते हो शरारत से
मैं शर्माकर कुरेदती हूँ ज़मीन
पर ये सब भी कब तलक
जब ये कुहासा नहीं होगा
बढ़…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 3, 2020 at 12:43pm — 2 Comments
आओ और निकट से देखो
हिलोरें लेते इस पारावार को
हमारा जीवन भी ऐसा ही है
नीर जैसा स्वच्छ और निर्मल
जब पयोधि क़ी लहरें छूती हैं
रेत क़ी फ़ैली हुई कगार को
तब वह समेट लेती सब कुछ
और ले जाती है पयोनिधी में
हम मनुष्य भी तो ऐसे ही हैं
जब हम प्रेम में होते हैं तब
ढूंढते रहते हैं बस एक साहिल
ताकि समेट सकें स्वयं में सब कुछ
किंतु उदधि और मनुज क़ा प्रेम
उदर में ज्य़ादा काल नहीं…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 2, 2020 at 12:30pm — 6 Comments
छोटी बातों से तू इतना, विचलित क्यूँ कर होता है
जीवन धार नदी की, इसमें उन्नीस बीस तो होता है
दुनियाँ का दस्तूर है, ज्यादा रोते को रुलवाने का
कितना समझाया तुझको तू, फिर भी नयन भिगोता है
जाने वाले साल को सारे, दुख अपने तू अर्पण कर दे तेरे भाग्य में फिर वो कैसे, बीज खुशी के बोता है
अस्त हुआ उन्नीस का भानु, बीस का दिनकर…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 1, 2020 at 11:00am — 10 Comments
ज़िंदगी में रह गया है अपनी तो बस अब यही
प्रदीप्ति में तुम रहो रहोगे,तिरगी में हम सही
किसको किससे प्यार कितना, क्या करोगे जानकर
उसका मुझसे कुछ है ज्यादा, औऱ मेरा कम सही
आ चलें मंदिर में,औऱ सौगंध खा कर ये कहें
साथ गर टूटेगा अगर तो, हम नहीं या तुम नहीं
पी रहे हो रात दिन, होकर मगन क्या सोचकर
बादा है जान लो तुम,आब-ए ये जमजम…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on December 20, 2019 at 12:00pm — 1 Comment
झूम के बरख़ा बरसी है ऐसे
जैसे दिन आया हो कोई ख़ास
मेरा तन भी भीगा मन भी भीगा
जगी अब पिया मिलन क़ी आस
पवन वेग से जल क़ी बूंदे कुछ
पूरब से पश्चिम तक हैं जाती
और पिया के सन्देशों को मेरे
अन्तर्मन की तह तक पहुँचाती
इससे पहले रुक जाए बरख़ा
तुम जल्दी घर आ जाओ ना
तप्त ह्रदय की ज्वाला की तुम
अपने नेह से प्यास बुझाओ ना
(मौलिक व अप्रकाशित)
- प्रदीप…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on December 19, 2019 at 4:41pm — 2 Comments
मुझको पता नहीं है, मैं कहाँ पे जा रही हूँ
तेरे नक़्श-ए-पा के पीछे,पीछे मैं आ रही हूँ
उल्फत का रोग है ये, कोई दवा ना इसकी
मैं चारागर को फिर भी,दुःखड़ा सुना रही हूँ
सुन के भी अनसुनी क्यूँ,करते हो तुम सदाएँ
फिर भी मैं देख तुमको यूँ मुस्कुरा रही हूँ
बेचैनियों का मुझ पर, आलम है ऐसा छाया
क्यो खो दिया है जिसको, पा कर ना पा रही हूँ
मुझे भूलना भी इतना ,आसाँ तो नहीं होगा
दिन रात होगें भारी, तुमको बता रही…
Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on December 6, 2019 at 11:30am — 1 Comment
प्रकृति हम सबकी माता है
सोच, समझ,सुन मेरे लाल
कभी अनादर इसका मत करना
वरना बन जाएगी काल
गिरना उठना और चल देना
तू स्वंय को रखना सदा संभाल
इतना भी आसाँ ना समझो
बनना सबके लिए मिसाल
सत्य व्रत का पालन करना
कभी किसी ना तू डरना
विपदाओं को मित्र बनाकर
बस थामे रहना ‘दीप’ मशाल
मौलिक…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on December 3, 2019 at 12:30pm — 2 Comments
उर उमंग से भर गया
मैं छम छम नाचूँ आज
ख़बर सखी ने दी मुझे
मेरे पिया खड़े हैं द्वार
मन प्रसन्न इस बात से
नित गाए ख़ुशी के गीत
मिलने क़ी बेताबी उर में
प्रतिदिन औऱ बढ़ाए प्रीत
द्वार तक रहे सुबह से नयना
औऱ छत पे कागा का शोर
स्वाती क़ी बूँदों क़ी प्रतीक्षा
करता रहता है जैसे चकोर
-प्रदीप देवीशरण भट्ट -26.11.2019, हैदराबाद(9867678909)
मौलिक व अप्रकाशित
Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on November 28, 2019 at 6:00pm — 3 Comments
अब सिर्फ़ तुम्हारी यादें ही तो हैं
जिन्हें संजोकर रक्खा हुअ है मैंने।
अपनी धुँधली होती हुई स्मृतियों में,
इन गुलाब के फूलों क़ी पंखुड़ियों में॥
मैं अभी तक भी कुछ नहीं भूला हूँ,
लैंपपोस्ट क़ी वो मद्दिम रौशनी में।
मेरे कांधे तुम्हारा धीरे से सर रखना,
औऱ फिर घंटो तलक अपलक निहारना॥
वो आकाश में बिजली का वो कौंधना,
तुम्हारा घबराकर मुझसे लिपट जाना।
मुझे अहसास कराता था सदियों का,
उन पलों का कुछ देर यूँ ही…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on November 27, 2019 at 6:30pm — 4 Comments
काश मैं भी उड़ सकती
खुले विस्तृत गगन में
बादलों को चीरते हुए
और छू सकती आकाश
पर ये संभव ही कहाँ है …
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on November 26, 2019 at 1:00pm — 14 Comments
मैंने ढेरों पत्र लिखे तुमको
उत्तर जिनका अपेक्षित है
तुम व्यस्त हो गये हो शायद
या पता पता तुम्हारा है बदला
लिखते ऊँगली के पोर दुखे
मन करता लेकिन और लिखे
इसलिए डायरी लिख डाली…
Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 25, 2019 at 12:30pm — 2 Comments
शमा जली, उठा धुँआ
तुम वहाँ औऱ मैं यहाँ
सोचती हूँ के क्या लिखूं
जिस्म यहाँ औऱ दिल वहाँ
पकड़ी क़लम ने उंगलियां
टो सुझा नहीं के क्या लिखें
तेरी अधूरी दास्तां या फ़िर …
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 23, 2019 at 6:30pm — 1 Comment
जिंदगी ये तो बता, तू इतनी क्यूँ उदास है
मुझसे है नाराज़ या फिर,औऱ कोई बात है
मैंने तो तुझसे कभी कुछ खास मांगा भी नहीं
ले रही फिर बारहा तू लंबी क्यूं उच्छवास है
जो तेरी ख़्वाहिश थी शायद वो मिला तुझको नहीं
फ़िक्र ना कर तेरे…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 9, 2019 at 11:00am — 2 Comments
Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 6, 2019 at 12:30pm — 1 Comment
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |