आज फिर बापू को हमने याद दिल से कर लिया ।
और सारे साल फिर इनसे किनारा कर लिया ।।
फूल चरणों में चढ़ाकर सोचते सब ठीक है ।
रूप बगुले का बशर ने फिर तिबारा कर लिया।।
परचम-ए-खादी तिरंगे में लिपटकर कह रहा ।
मेरे ही मुंसिफ़ ने मुझसे किनारा कर लिया ।।
देखकर रंग-ए-फिज़ा हैरां मैं हर दिन हो रहा ।
कैसे खोटे ने खरे को भी नकारा कर लिया।।
सुन के भी जब अनसुनी करने लगे अपने ही लोग ।
हो व्यथित बापू ने जग से ही किनारा कर लिया ।।
ज़्यादा की चाहत कभी की ही नहीं उसने' प्रदीप'
उसने अपना तो फ़कीरी में गुज़ारा कर लिया
-प्रदीप भट्ट-
मौलिक एवं अप्रकाशित -
Comment
'हो व्यथित बापू ने जग से ही किनारा कर लिया' ये पंक्ति ठीक है,ग़लती से कोट हो गई ।
'मेरे ही मुंसिफ़ ने मुझसे किनारा कर लिया'
ये पंक्ति अभी बह्र में नहीं है,इसे यूँ कर सकते हैं:-
'मेरे ही मुन्सिफ़ ने मुझसे क्यों किनारा कर लिया'
'कैसे नक्कालों ने अपने बस में ख़ालिस कर लिया'
इस पंक्ति में क़ाफ़िया नदारद है?
'हो व्यथित बापू ने जग से ही किनारा कर लिया'
इस पंक्ति में 'ही' शब्द अधिक होने से बह्र से ख़ारिज है 'ही' शब्द हटा दें ।
बाक़ी ठीक है ।
जनाब समर साहिब
आपका आदेश सिर माथे
लीजिए दुरुस्त कर दिया।
जनाब प्रदीप भट्ट साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
कुछ बातें आपके संज्ञान में लाना चाहूँगा ।
मतला और उसके बाद के शैर में रदीफ़ 'लिया' है और बाक़ी तीन अशआर में रदीफ़ "दिया" हो गई है,ग़ौर करें ।
'परचम-ए-खादी तिरंगे में लिपटकर कह रहा '
तिरंगा भी परचम है,"परचम-ए खादी" से क्या कहना चाहते हैं?स्पष्ट नहीं ।
देखकर रंग-ए-फिज़ा मैं हैरान हर दिन हो रहा ।
जो असल थे उनको नक्कालों ने नकारा कर दिया
ये शैर बह्र में नहीं है,क़ाफ़िया भी 'नकारा' ग़लत है,सहीह शब्द है "नाकारा" ।
सुन के भी अनसुनी करने लगे अपने ही लोग ।
हो व्यथित बापू ने जग से ही किनारा कर लिया
ये शैर भी बह्र से ख़ारिज है, देखियेगा ।
कालजयी राष्ट्रहित, सामाजिक सरोकार के संदेश देने वाले महान व्यक्तित्व राष्ट्रपिता बापू जी का पुण्य स्मरण कराती, उनकी रूह का दर्द बयां करती बढ़िया रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय प्रदीप देवीशरण भट्ट साहिब।
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