ये क्या हो रहा मेरे प्यारे शहर को,
कहीं क़त्ल-ओ-गारत कहीं ख़ून के छीटें,
के घायल हैं चंदर कहीं पे सिकंदर,
के हर ओर फैले हुए अस्थि पंजर,
के तुम ही कहो कैसे देखूँ ये मंजर,
के आँखों के सूखे पड़े हैं समंदर ।।
ये किसकी नज़र लग गई इस चमन को,
ये क्या हो रहा है शहर के अमन को,
के हाथों मे शमशीर सब हैं उठाये,
है क्या माजरा कोई कुछ तो बताये,
के अटकी हैं साँसे मेरी कब से अंदर,
नहीं देखता कोई मस्जिद या मंदर,।।
ये किसने बिगाड़ी फिज़ा इस शहर की,
के हर रात बीती है अपनी कहर की,
ये किसके इशारे पे सब हो रहा है,
बशर से लिपटकर बशर रो रहा है,
दिलों मे उठेंगे अगर यूँ बवंडर,
मकां न बचेंगे दिखेंगे बस खंडहर।।
हमें प्यार हैं अपने प्यारे वतन से
संभाली है हमने विरासत जतन से
गुनाह दर गुनाह सब किए जा रहे हैं
ये नस्लों को हम क्या दिये जा रहे हैं
के हाथों मे सबको दिये किसने खंजर
के सरहद के उस पार का है कलंदर।।
-प्रदीप भट्ट- (मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
जनाब प्रदीप भट्ट साहिब आदाब,नज़्म का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
कुछ बातें आपकी जानकारी में लाना चाहूँगा ।
सहीह शब्द--,"शह्र-क़ह्र--अम्न--मन्दिर हैं देखियेगा ।
'के सरहद के उस पार का है कलंदर'
इस पंक्ति में "क़लन्दर" शब्द भर्ती का है ।
आद0 प्रदीप भट्ट जी सादर अभिवादन। बढिया कविता लिखी आपने। बधाई स्वीकार कीजिये।
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