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ज़िंदगी में रह गया है अपनी तो बस अब यही

प्रदीप्ति में तुम रहो रहोगे,तिरगी में हम सही

 

किसको किससे प्यार कितना, क्या करोगे जानकर

उसका मुझसे कुछ है ज्यादा, औऱ मेरा कम सही

 

आ चलें मंदिर में,औऱ सौगंध खा कर ये कहें

साथ गर टूटेगा अगर तो, हम नहीं या तुम नहीं

 

पी रहे हो रात दिन, होकर मगन क्या सोचकर

बादा है जान लो तुम,आब-ए ये जमजम नहीं

 

छोड़कर जाना ही था तो, मुझसे कह देते 'प्रदीप'

आज तक दामन में रखा, मैंने कोई ग़म नहीं

 

 

मौलिक व अप्रकाशित

प्रदीप देवीशरण भट्ट  -20.12.2019

Views: 315

Comment

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Comment by Samar kabeer on December 29, 2019 at 3:33pm

जनाब प्रदीप जी आदाब,रचना का प्रयास अच्छा है,लेकिन ये समझ नहीं आया कि ये किस विधा में है? अगर ये ग़ज़ल है तो अभी और समय चाहती है,बहरहाल इस प्रस्तुति पर बधाई ।

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