2122 1122 1122 22
जब भी होता है मेरे क़ुर्ब में तू दीवाना
दौड़ता है मेरी नस नस में लहू दीवाना //१
एक हम ही नहीं बस्ती में परस्तार तेरे
जाने किस किस को बनाए तेरी खू दीवाना //२
इश्क़ में हारके वो सारा जहाँ आया है
इसलिए अश्कों से करता है वजू दीवाना //३
लोग आते हैं चले जाते हैं सायों की तरह
क्या करे बस्ती का भी होके ये कू दीवाना //४
चन्द लम्हों में ही हालात बदल जाते थे
मेरे नज़दीक जो आता था अदू दीवाना //५
कब ये ज़ाहिर हुआ लहरों पे तलातुम के सबब
मौजे दरिया को बना देती है जू दीवाना //६
क्यों बनाता नहीं तू जलवानुमाई से मुझे
मुझको कपड़ों से बनाता है रफ़ू दीवाना //७
तुझको आएगा मेरे जैसे दिवानों पे तरस
तू भी होगा जो मुहब्बत में कभू दीवाना //८
मुझमें लैला को भी मजनूँ का भरम होता है
यूँ दिखे है मेरा हुलिया, मेरा मू दीवाना //9
दौर ये लैला ओ मजनूँ की मुहब्बत का नहीं
तूने क्या सोचा था, क्यों हो गया तू दीवाना? //१०
मुझको दरकार नहीं तश्नगी ये दुनिया की
मैं तो रहता हूँ पये इशरते हू दीवाना //११
ताब आँखों की तेरी आग लगा देती है
यूँ रगों में नहीं दौड़े है लहू दीवाना //१२
'राज़' ये शह्र है, मजनूँ का बियाबाँ तो नहीं
लाख मिल जाएं जो खोजे यहाँ तू दीवाना //१३
~ राज़ नवादवी
“मौलिक एवं अप्रकाशित”
क़ुर्ब- सामीप्य; कफ़े पा- तलवा; फ़ुरक़त- जुदाई; कू- गली; कता- विच्छेद; अदू- दुश्मन, प्रतिद्वंदी; जू- नदी, चश्मा, स्रोत; मू- बाल; शुआ- किरण; खल्क- दुनिया; क़ल्ब- अंतःकरण, ह्रदय; हू- ईश्वर, ब्रह्म; क़हत- दुर्भिक्ष, सूखा; वा- हाय हाय; सू- दिशा;
Comment
आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब. आपकी इस्लाह का तहे दिले से शुक्रिया. ग़ज़ल पे आपका रद्दे अमल वाजिब है, अन्यथा क्यों लूँ, मुझे सीखना है, आप हमारे और इदारे दोनों के उस्ताज़ हैं, हमें नसीहत देना मुनासिब है. मैंने दीवाना लफ्ज़ को सिफ़त समझने की भूल की, और चूँकि दीवानी लफ्ज़ का कोई दीगर मा'ना है,मैंने सोचा मुअन्नस के लिए भी दीवाना लफ्ज़ आयेगा. वरना मुझे मालूम था जू, बू वगैरह मुअन्न्स हैं और उसी हस्बे हाल मिसरों में उनका इस्तेमाल किया.
बहरहाल, मैं दुरुस्त करने की कोशिश करता हूँ. सादर
जनाब राज़ नवादवी साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'
ऐसे होता है मेरे क़ुर्ब में तू दीवाना
जैसे होती है किसी फूल पे बू दीवाना'
मतले के सानी मिस्रेरे में "बू" शब्द स्त्रीलिंग है, देखियेगा ।
तू बता किस जगह मस्जिद है गुनहगारों की
अपने अश्कों से ही करता है वजू दीवाना'
इस शैर के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है ग़ोर करें ।
जिसके सीने तेरा पड़ता था कफ़े पा हर दिन'
इस मिसरे का शिल्प कमज़ोर है ।
'
एक तेरे लिए दुनिया से क़ता की हमने
मेरी चाहत में सरापा था अदू दीवाना'
इस शैर का मफ़हूम स्पष्ट नहीं,और शुतरगुर्बा दोष भी है ।
' मौजे दरिया की भी होती है जू दीवाना '
ये मिसरा लय में नहीं,दूसरी बात "जू" शब्द स्त्रीलिंग है ।
' तुझको आएगा मेरे जैसे दिवानों पे रहम'
इस मिसरे में सहीह शब्द है "रह्म",इसकी जगह "तरस" कर सकते हैं ।
' राज़ ये कैसा क़हत वा है मुहब्बत का यहाँ'
इस मिसरे में ' क़हत' ग़लत है सहीह शब्द है "क़ह्त"।
पूरी ग़ज़ल में एक दो अशआर को छोड़कर बाक़ी अशआर में क़वाफ़ी ज़बरदस्ती ठूंसे हुए लगते है,कृपया अन्यथा न लें ।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online