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'लुभावने या डरावने दिन?' (लघुकथा)

"हम तो अपनी सरकारी नौकरी से मज़े में हैं! तुम सुनाओ, कैसी चल रही है तुम्हारी प्राइवेट टीचरी?"
"बढ़िया! मेरे ख़्याल से तुमसे भी बेहतर चल रहा है सब कुछ!"
"वो कैसे?"
"तुम्हारी नौकरी में तुम केवल सरकार और जनता को उल्लू बनाते हो या चूना लगाते हो! ... हम तो अपनी नौकरी में मैनेजमेंट को और माता-पिता-पालकों को और छात्रों को भी, क्योंकि वे हमें उल्लू बनाते हैं या चूना लगाते हैं! 'टिट-फॉर-टेट' और 'टेक इट ईज़ी' का ज़माना है न!"
"कुछ समझ में नहीं आया! हमने तो सुना है कि प्राइवेट संस्थायें या कम्पनियां अपने कर्मचारियों का तेल निकाल लेती हैं!"
"अरे, अशासकीय स्कूल प्राइवेट कम्पनियों जैसे थोड़े न होते हैं! वे तो धनोपार्जन करके हमें धनोपार्जन के नये-नये तरीक़े सिखाते हैं नयी व्यावहारिकता के साथ!"
"वो कैसे?"
"छात्रों का रटने, समझने, सालाना पाठ्यक्रम और परीक्षा-पाठ्यक्रमों का बोझ कम कर दो, बस! ... और उनके मां-बाप-पालकों वाली कुछ ज़िम्मेदारियां निभा दो! सब का संतुष्टिकरण; अपने मज़े ही मज़े, बस!"
"सही कह रहे हो! जमकर ट्यूशन भी कर लेते होगे और 'एक्टीविटीज़ और फ़न के ज़रिए शिक्षण' के बहाने ख़ूब मज़े भी लेते होगे!"
"और क्या! सरकारी नौकरियों में तो एक सीमा है! भ्रष्टाचार के मज़े लो, बस! प्राइवेट वालों का तो सूत्र है - 'जियो और जीने दो!' शॉर्टकट से बेहतरीन परीक्षा-परिणाम और लोकप्रियता दो, बस!"
"मतलब, 'मज़े लो और सबको लेने दो'! लेकिन भाईसाहब! बच्चों के विषय संबंधित, जीवन उपयोगी वास्तविक ज्ञान के अलावा चरित्र और चहुंमुखी व्यक्तित्व-विकास कैसे करा पाते होगे, ऐं?"
"वो तो हो रहा है न, नेताओं, मीडिया और डिजीटलीकरण वग़ैरह से! बच्चे टीचरों से बहुत ही आगे हैं भाई!"
"वो कैसे?"
"बच्चे झूठ बोलना सीख रहे हैं; बड़बोलापन, डींगें हांकना, दिवास्वप्न देखना, विकसित देशों का अंधानुकरण करना सीख तो रहे हैैं न! यही ज़माने की 'मांग' है मांग ... समझे न!"
"तो फ़िर स्वास्थ्य और यौन-शिक्षा भी न!"
"हां बिल्कुल! जो मां-बाप-पालकगण नहीं सिखा पाते, छात्र आपस में स्वत: एक-दूसरे से या मीडिया और डिजिटल डिवाइस वग़ैरह से आसानी से सीख ही लेते हैं! ज़िन्दगी तो वे ही जी रहे हैं न!"
"तो फ़िर हो गया इस देश का कल्याण!"
"क्या मतलब?"
"कहते हैं न कि देश का भविष्य बच्चे और युवा ही होते हैं!"
"भैया, अब तो इस मान्यता को बदल दो! यह कहो कि 'योग्य छात्र विदेश-निर्माण के भविष्य होते हैं और अयोग्य छात्र देश के मीडिया के,राजनीतिक दलों के, वोट और सत्ता के भविष्य होते हैं!"
"मतलब तुम जैसी सोच वाले लोग ही 'शिक्षक' का नाम बदनाम कर रहे हैं!"
"भाईसाहब! जहां धर्म, परमात्मा और धार्मिक चरित्रों का नाम बदनाम हो रहा हो, वहां शिक्षक की यही नियति है न! .. शिक्षक के साथ अपराध होते हैं, तो शिक्षक भी अपराधी होंगे न आजकल!"
" कुछ अच्छे शिक्षक भी तो होते हैं न!"
"होते तो हैं, लेकिन चलन की बिज़ली के हाई वोल्टेज में उनके 'जोश' के 'फ़्यूज़' उड़ा दिए जाते हैं न, मेरे भाई!"


(मौलिक व अप्रकाशित)

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