फिर ज़िंदगी से अपनी पहचान हो न जाए
साँसों का आना जाना आसान हो न जाए
अपनी शनावरी पे इतरा न ऐ शनावर
शोहरत का ये समुंदर दालान हो न जाए
इस बार भी मैं दफ़्तर ताख़ीर से गया तो
डर है कि नौकरी का नुक़सान हो न जाए
मज़लूम पे सितम के तुम ती मत चलाओ
अशकों से रेज़ा रेज़ा चट्टान हो न जाए
अपना समझ के जिस की देहलीज़ चढ़ रहा हूँ
यारों कहीं वो हम से अंजान हो न जाए
"सुरख़ाब"उड़ न जाएें यादों के ये कबूतर
दिल का खण्डर हमारा वीरान हो न जाए
सुरख़ाब बशर
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
जनाब सुरख़ाब बशर साहिब आदाब,ओबीओ के तरही मिसरे पर ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
' मज़लूम पे सितम के तुम ती मत चलाओ'
इस मिसरे में टंकण त्रुटि है 'ती' को "तीर" कर लें ।
'अपना समझ के जिस की देहलीज़ चढ़ रहा हूँ
यारों कहीं वो हम से अंजान हो न जाए'
इस शैर में शुतरगुरबा ऐब है,ऊला मिसरा यूँ कर लें,ऐब निकल जायेगा:-
'अपना समझ के जिसकी दहलीज़ चढ़ रहे हैं'
'दिल का खण्डर हमारा वीरान हो न जाए'
'खण्डर' तो वीरान ही होते हैं भाई, इस मिसरे को यूँ कर लें:-
'दिल का मकाँ हमारा वीरान हो न जाये'
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