है कहाँ फूल जैसा खिला आदमी
हो गया है ग़मों का किला आदमी
मंदिरों, मस्जिदों में रहे ढूँढते
जब मिला आदमी में मिला आदमी
गाँठ दिल में लगी तो खुली ही नहीं
भूल पाया न शिकवा-गिला आदमी
भीड़ में जब गया भीड़ का हो गया
बन गया आजकल काफ़िला आदमी
दौड़ कर मिल रहा था गले कल तलक
तख्त पाकर कहाँ फिर हिला आदमी
सुर्ख़ियों में रहा गुम गया एक दिन
एक चलता हुआ सिलसिला आदमी
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय vijay nikore जी सादर नमस्कार, आपकी हौसला अफजाई के लिए हृदय से आभार
आदरणीय Hardam Singh Maan जी सादर नमस्कार, आपकी हौसला अफजाई के लिए हृदय से आभार
आदरणीय dandpani nahak जी सादर नमस्कार, आपकी हौसला अफजाई के लिए हृदय से आभार
आदरणीय Anamika singh Ana जी सादर नमस्कार, आपकी हौसला अफजाई के लिए हृदय से आभार
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी सादर नमस्कार, आपकी हौसला अफजाई के लिए हृदय से आभार
गज़ल अच्छी लगी। बधाई, मित्र बसंत कुमार जी।
वाह ! उम्दा ग़ज़ल हेतु सादर बधाई ।
आ. भाई बसंत जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
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