'भूं भूं...भूं' की आवाज सुन भाभी भुनभुनाई--
' भोरे भोरे कहां से यह कुक्कुड़ आ गया रे?'
' कुक्कुड़ मत कहना फिर, वरना....', बगल वाली आंटी गुर्राई।
' अरे तो क्या कहूं, डॉगी?'
' नहीं।'
' तो फिर?'
' पपलू है यह।पप्पू के पापा इसे प्यार से इसी नाम से बुलाते हैं।समझ गईं, कि नहीं?'
' बाप रेे..ऐसा?'
' और क्या?हमारे परिवार का हिस्सा है अपना पपलू। हमारे संग नहाता - धोता,खाता - पीता है यह।'
' और सब....?'
' और..?सब कुछ हमारे जैसा ही करता है।बिलकुल आदमी हो गया है यह।'
' हूं हूं..छछूंदर के माथे चमेली का तेल....हेहेहहे...और क्या?'
' ज़बान संभाल लीजिए भाभी।आगे में बर्दाश्त नहीं करूंगी। पपलू हमारे परिवार का सदस्य है।पूरी तरह अप टू डेट हो चुका है।'
' इसीलिए सुबह - शाम सड़क और अपार्टमेंट की दीवारें गंदी करता फिरता है?और तुमलोग अप टू डेट बनकर यही सब करा रहे हो, कि नहीं?'
आंटी अटपटा गई।क्या कहे - क्या न कहे ,यह समझ नहीं पाई।
पपलू निवृत होकर भौं भौं करने लगा था।
'मौलिक व अप्रकाशित'
Comment
जनाब मनन कुमार सिंह जी आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,बधाई स्वीकार करें ।
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