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बन्द पड़े-से लॉकर हैं सब - ग़ज़ल

अपने अपने भीतर हैं सब
चिेकने-चुपड़े बाहर हैं सब

किस की प्यास बुझा पाएँगे
इ्क टूटी-सी गागर हैं सब

कौन समझ पाएगा इनको
बस प्याले में सागर हैं सब

छुप लें लाख नकाबों में वो
पर करतूतें उजागर हैं सब

बाँट रहे हैं जह्‌र सभी को
बनते किन्तु सुधा्कर हैं सब


जिन कलियों में रंगो-बू है
उनके ही सौदागर हैं सब

काम वक़्त पर क्या आएँगे
बन्द पड़े-से लॉकर हैं सब

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by shyamskha on March 21, 2013 at 4:48am

स्नेहिल योगी जी ब्रजेश जी, केवल प्रसाद एवम्‌ वीनस भाई आज ही प्रवास अमेरिका व मे़क्सिको से लौटा हूं तो गज़ल पर आपके स्नेहिल उदगारों से रूबरू हुआ। आप सभी का आभा

Comment by Yogi Saraswat on March 20, 2013 at 3:26pm

छुप लें लाख नकाबों में वो
पर करतूतें उजागर हैं सब

बाँट रहे हैं जह्‌र सभी को
बनते किन्तु सुधा्कर हैं सब

sundar alfaaz

Comment by वीनस केसरी on March 20, 2013 at 12:03am

जिन कलियों में रंगो-बू है
उनके ही सौदागर हैं सब

काम वक़्त पर क्या आएँगे
बन्द पड़े-से लॉकर हैं सब

वाह आदरणीय आपकी इस ग़ज़ल की जो तारीफ़ करूँ कम होगी .....शानदार

Comment by बृजेश नीरज on March 19, 2013 at 6:07pm

बहुत बेहतरीन! हर शेर लाजवाब!

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 19, 2013 at 10:42am

आदरणीय श्यामसखा जी, आपकी गजल मुझे बहुत अच्छी लगी।  बहुत-बहुत शुभकामनाएं!

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