ग़ज़ल
रात - रात भर सोते - जगते, मैंने उसे मनाया है |
फिर भी खुदा न मेरा अब तक, सिर सहलाने आया है ||
कहते हैं- मालिक ने हमको, तुमको, सबको, जन्म दिया,
पर लगता है - कोई वो पागल था जिसने भरमाया है ||
एक ज़ख्म जब तन पर मेरी माँ ने देखा, चीख उठी,
पर, मालिक ने ठोकर दे- दे कर के ज़ख्म जगाया है ||
रो - रो कर के मैंने अपना सारा खून जला डाला,
फिर भी उसका दिल न पिघला, इतना ज़ालिम साया है ||
तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ , आओ ये इन्साफ करें,
खुदा कोई है भी या वहम में हमने वक़्त गंवाया है ||
रचनाकार - अभय दीपराज
Comment
तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ , आओ ये इन्साफ करें,
खुदा कोई है भी या वहम में हमने वक़्त गंवाया है ||
एक निराश व्यक्ति की अंतिम गुहार और गुस्से का इजहार है आपकी ग़ज़ल मे , बहुत खूब अभय साहब , बेहतरीन अभिव्यक्ति पर दाद कुबूल कीजिये |
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