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                        ग़ज़ल

पूछिए मत किस तरह ?  घड़ियाँ  मुक़म्मिल कर रहा हूँ |
लोग  कहते  हैं  कि -  ज़िंदा  हूँ   मगर   मैं  मर  रहा  हूँ ||

तख्त    मेरा    बन    गया    ताबूत    अब    मेरे   लिए,
कब्र  तक जाने  का  ही  अब  फ़र्ज़  मैं  ये  कर  रहा   हूँ ||

रौशनी   भी  अब  तो   धुँधलापन   लिए   दिखने   लगी,
फिर भी, कल शायद सुबह हो,   इसलिए मैं लड़ रहा हूँ ||

आदमी    हारा    नहीं    है    और    न    हारेगा    कभी,
लोग   कहते   हैं ,   मगर   मैं,   देखकर कुछ
डर रहा हूँ ||

दर्द   ये   मेरा   नहीं   है,   गम   है   ये   दिल   का   मेरे,
हाय,   मैं   इंसान   बनकर,   बोझ   अपनों  पर   रहा हूँ ||


                                         रचनाकार - अभय दीपराज

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