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यदि एकलव्य से विद्यार्थी नहीं होते
तो द्रोणाचार्य कभी स्वार्थी नहीं होते

कहीं पे भाव का अनुवाद छूट जाता है
कहीं पे शब्द समानार्थी नहीं होते

न जाने कौन सा बनवास है की बंजारे
किसी नगर में भी शरणार्थी नहीं होते

न आज है कोई अर्जुन न है महाभारत
तभी तो कृष्ण कहीं सारथि नहीं होते

विनम्रता से क्षमा याचना जो करते हैं
सदा ह्रदय से क्षमाप्रार्थी नहीं होते

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 9, 2010 at 9:04am
विनम्रता से क्षमा याचना जो करते हैं
सदा ह्रदय से क्षमाप्रार्थी नहीं होते,

बहुत ही उम्द्दा ख्यालात , बहुत ही खुबसूरत ग़ज़ल कही है फौजान भाई, सभी शेअर अपने आप मे खुबसूरत है, बहुत बहुत शुक्रिया .
Comment by satish mapatpuri on June 8, 2010 at 4:30pm
न आज है कोई अर्जुन न है महाभारत
तभी तो कृष्ण कहीं सारथि नहीं होते

विनम्रता से क्षमा याचना जो करते हैं
सदा ह्रदय से क्षमाप्रार्थी नहीं होते
बहुत ही सही फरमाया है फौज़ान साहेब.
Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on June 8, 2010 at 4:10pm
न जाने कौन सा बनवास है की बंजारे
किसी नगर में भी शरणार्थी नहीं होते

bahut hi badhiya rachna hai fauzan bhai......aapki rachna ka intezaar rahta hai hamesha...bahut bahut dhanyabaad itni acchi rachna humlogo ke beech post karne ke liye
Comment by Kanchan Pandey on June 8, 2010 at 3:21pm
न आज है कोई अर्जुन न है महाभारत
तभी तो कृष्ण कहीं सारथि नहीं होते
Bahut hi uchhi soch, waah, ek behtarin rachna hai, Thanks for this post sir,
Comment by Admin on June 8, 2010 at 12:41pm
यदि एकलव्य से विद्यार्थी नहीं होते
तो द्रोणाचार्य कभी स्वार्थी नहीं होते,

बहुत ही खुबसूरत अभिव्यक्ति , आप ने ठीक ही कहा है, एकलव्य मे कुछ तो था जो द्रोणाचार्य जैसे महागुरु को स्वार्थी बनने पर मजबूर होना पडा, एक एक शेअर काबिले तारीफ़ है फौज़ान भाई , बहुत ही उम्द्दा अभिव्यक्ति लिये यह ग़ज़ल, बहुत बहुत बधाई,

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on June 8, 2010 at 10:27am
वाह वाह फौजान भाई क्या खूब लिखा है, जवाब नही !
//न जाने कौन सा बनवास है की बंजारे
किसी नगर में भी शरणार्थी नहीं होते//
क्या उम्दा और नवीन ख्याल है साहब, मुशायरा लूट लिया भाई जान आप ने ! इस निहायत ही खूबसूरत गजल के लिए मेरी दिली मुबारकबाद कबूल फरमायें !

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on June 8, 2010 at 9:24am
फौज़ान भैया
प्रणाम

तरह तरह के मुखौटे लगाये लोगों के सच को उदघटित किया है आपकी इस रचना ने......सुन्दर लिखने के लिए बधाई स्वीकार करें.......................

राणा प्रताप सिंह

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"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
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