जो अपने इल्म-ओ-मेहनत से जहाँ सारा सजा देते
ये मेहनत गांव में करते तो घर अपना बना लेते ..१
भरम तो टूटते हैं तब वतन की याद आती जब
अगर पैसे से मिलता तो सुकूँ थोडा मंगा लेते ...२
कहाँ मालूम था परदेस भी दर है जलालत का
नहीं तो हम कभी भी गांव से क्यों कर विदा लेते ?...३.
हंसी में इस तरह मायूसियत हरगिज़ नहीं होती
ज़रा अपने वतन की खिलखिलाहट को सजा लेते ...४
सुकून-ए-जिंदगी में अहमियत ज़र की विवादित है
नहीं मालूम था वर्ना वतन से क्यूँ विदा लेते .....५
ये हासिल इल्म से ज़र और गैरत जो ज़माने में
यहीं इस मुल्क में या रब ! ज़रा सा आजमा लेते ..६
तो यूँ अब इस तरह तनहा नहीं होते ज़माने में
विरह की आग में ऐसे न हम दामन जला लेते ...७
यहाँ पर प्यार के मौसम , गरम हैं तो कभी हैं नम
कभी सर्दी में इसके प्यार का अहसास पा लेते ...८
हसीं इतनी की जैसे स्वर्ग से कोई परी उतरी
कि अपनी जन्म भूमि पे ज़रा सा सर झुका लेते...९
अँधेरे इस क़दर दोजख के यूँ कैसे जला लेते
जो अपने गाँव में होते तो हम ज़न्नत बुला लेते ....१० .
Dr. Brijesh
Comment
bahut hi umda Gzal kahi hai kamal
shukriya bhai saurabh ji
डा. बृजेश भाई जी. इस ग़ज़ल के लिये साधुवाद.
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