२१२२ २१२२ २१२२ २१२
जिंदगी मेरी कहाँ जाके गई है तू ठहर ॥
ले गई है फिर वहां ,जो छोड़ आया था शहर
है खुदा भी एक ,एक ही आसमां , एक ही ज़मीं
सरहदों पर किस लिए हमने मचाया है कहर
मारता आया है बरसों बाद भी अक्सर हमें ॥
घुल गया था जो दिलों में लकीरो का जहर
भूल कर भी भूल सकता हूँ भला कैसे उसे ,
वो सताए है मुझे यादों में शामो - सहर
वायदा करके नहीं आये अभी तक क्यों भला ,
यूँ अकेला बैठ कर कब तक गिनूँगा मैं पहर ।
सूखी थी दिल की ज़मीं ,आबाद जो फिर से हुई ,
यूँ लगे है छू गई इसको मुहब्बत की लहर ॥
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
आदरणीया महिमा श्री जी हौसला देने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी बहुत बहुत धन्यावाद। भाई जी जो काफ़िया में त्रुटि है दरुस्त करने की कोशिश कर रहा हूँ । एक बार फिर से हार्दिक आभार
वायदा करके नहीं आये अभी तक क्यों भला ,
यूँ अकेला बैठ कर कब तक गिनूँगा मैं पहर ।
सूखी थी दिल की ज़मीं ,आबाद जो फिर से हुई ,
यूँ लगे है छू गई इसको मुहब्बत की लहर ॥.....बहुत बढ़िया
आदरणीय नाज़िल भाई , खूब सूरत गज़ल के लिये आपको दिली मुबारकबाद ॥ एक बात कहनी है -- शहर , कहर , ज़हर तीनो हर्फ काफिया के रूप मे गलत हो रहे हैं , अस्ल हर्फ , शह्र , कह्र और ज़ह्र हैं ॥
आदरणीय krishna mishra 'jaan'gorakhpuri जी हार्दिक आभार
है खुदा भी एक ,एक ही आसमां , एक ही ज़मीं
सरहदों पर किस लिए हमने मचाया है कहर वाह!
मारता आया है बरसों बाद भी अक्सर हमें ॥
घुल गया था जो दिलों में लकीरो का जहर बहुत ख़ूब!
सुन्दर गजल पर दिली दाद हाजिर है आ० nazeel सर!
आदरणीय उमेश भाई जी हार्दिक आभार
वायदा करके नहीं आये अभी तक क्यों भला ,
यूँ अकेला बैठ कर कब तक गिनूँगा मैं पहर । वाह
हार्दिक आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी।
बहुत बहुत आभार लक्ष्मण धामी भाई जी।
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