फिरि आवत जावत जाकर आवत, आवत है ऋतु ठंड कि ये पुनि/
फिरि सुर्य छिपा अरु धुंध बढ़ी, बदली दिखती नभ में बिछि ये पुनि/
सब लोग लिए कर कंपन कुम्पन, तांक रहे नभ में रवि को पुनि/
अरु सुर्य लगे धरती पर से, निकला सुबहा नभ में शशि है पुनि//
Comment
सादर, आदरणीय अशोक भाई.
आदरणीय सौरभ जी
सादर प्रणाम, सही है फिरि और पुनि का घालमेल प्रथम पद में अधिक समझ आ रहा है.रूचि है तो शब्द ढूंढने कष्ट नहीं आनंद ही आएगा. आगे से अवश्य ही इस पर आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन लूँगा. आपने त्रुटियों को इंगित कर जों मदत कि है उसके लिए सादर हार्दिक धन्यवाद.
आपका प्रयासरत होना आपको बधाई का पात्र बनाता है.फिरि और पुनि के बीच घालमेल बन रहा है. पुनि का उतना बढिया प्रयोग नहीं हो सका है, आदरणीय. वैसे गणों पर निबद्ध शब्दों को ढूँढना ही कठिन है फिर उनका प्रयोग थोड़ा कष्टकर अवश्य है. परन्तु, यही तो पद्य-साधना है.
अब चूँकि यह प्रस्तुतिकरण एक सहज प्रयास ही है तो इस तरह को देख-दिखवा लिया करें.
सादर
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